Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 231
________________ आराधनासार - १९६ विसहसु विशेषेण सहस्व। किं । दुक्खं दुःखं आधिव्याधिसमुद्भव। किं विशिष्टः सन् सहस्व । समभावणाइ जुत्तो युक्तः संयुक्तः समभावनया। तामेव समभावनामाह। णाहं देहो अहं शुद्धद्रव्यार्थिकनयापेक्षया विशुद्धचैतन्यात्मकः देहः काय औदारिकादिरूपो न भवामि । तथाहं शुद्धनिश्चयनयेन निर्विकल्पस्वभावरूपो मन: संकल्परूपं चित्तं न भवामि यतो मनसः कायस्याप्यगोचरः । यदुक्तम् न विकल्परहितं चिदात्मकं वस्तु जातु मनसोऽपि गोचरः। कर्मजाश्रितविकल्परूपिणः का कथा तु वचसो जडात्मनः ।। तथाऽहमात्मा ईदृग्विधः स्वसंवेदनसुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः । अत्यंतसौख्यवानात्मा लोकालोकविलोकन: ।। तेनैव प्रकारेण इत्थं एतस्मिन् काये व्यवहारनयापेक्षया वसतोपि मम निर्मलनिष्कलंकस्वभावस्य दुःखानि जन्मजरामरणरोगरूपाणि न संति इति समभावनापरिणतः क्षपको व्याधिप्रतीकारचिंतनरूपेण आर्तध्यानेन न बाध्यत इति भावार्थः ॥१०१॥ मानसिक पीडा को आधि कहते हैं और शारीरिक पीड़ा को व्याधि कहते हैं। रागद्वेष को अपना मानने से आधि होती है और शरीर को अपना मानने से व्याधि होती है। शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा मैं शुद्ध चैतन्य स्वरूप ज्ञाता द्रष्टा हूँ और शरीर पौद्गलिक जड़ है अतः मैं शरीर-आत्मक नहीं हूँ। निश्चय नय से मैं निर्विकल्प स्वभावरूप हूँ, राग-द्वेष के कारण होने वाले मानसिक संकल्प-विकल्प मेरा स्वरूप नहीं हैं, ये विभाव भाव हैं, आत्मस्वरूप के घातक हैं। मैं तो मन, वचन, काय के अगोचर हूँ। कहा भी है "विकल्परहित चिदानन्द स्वरूप जो आत्मवस्तु है, वह आत्मवस्तु कर्म-जन्य विकल्प रूप मन के गोचर नहीं है तो जड़ात्मक वचन की तो कथा ही क्या करना ! वचनगोचर तो आत्मा हो ही नहीं सकती।" "मैं आत्मा ऐसी हूँ"- आचार्य पूज्यपाद ने कहा है स्वसंवेदन से व्यक्त होने वाली है, स्वसंवेदन गोचर है, तनु मात्र (शरीर प्रमाण), अविनाशी, अत्यन्त सौख्यवान और लोक-अलोक को देखने वाली ऐसी आत्मा है । यह मन, वचन के अगोचर है। ऐसा विचार करके समभाव से परिणत होकर आधि-व्याधि-जन्य दुःखों को तू सहन कर | 'यद्यपि इस समय व्यवहार नय की अपेक्षा मैं इस शरीर में रह रहा हूँ, तथापि निर्मल निष्कलंक स्वभाव वाले मेरे जन्म-मरणादि रूप रोग, दुःख मेरे नहीं हैं। इस प्रकार समभावना से परिणत साधु क्षपक व्याधि के प्रतिकार की चिन्तारूप आर्तध्यान के द्वारा बाधित नहीं होता, पीड़ा-चिन्तन नामक आतध्यान से युक्त नहीं होता ॥१०१।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255