Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - १९४
थक्के मणसंकप्पे रुध्दे अक्खाण विसयवाबारे ।
पयडड़ बंभसरूवं अप्पाझाणेण जोईणं॥ पुनः किं कुर्वन् क्षपकः। अगणंतो तणुदुक्खं तनौ शरीरे यानि दुःखानि ज्वरात्रंशादीनि तानि अगणयन्। अनया भावनया निराकुर्वन् । ता भावनामाह
न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा।
नाहं बालो न वृद्धोऽहं युवा चैतानि पुगत्ले ।। ततो रागादीन् विभावान् मुक्त्वा अनंतज्ञानस्वभावे स्वात्मनि निरतः क्षपकः सुखी भवतीति भावार्थ: ।।१९। यावत्तपोऽग्निना न तप्तं चेतनं कार्तस्वरं तावत्कर्मकालिमा न मुच्यत इत्याह
जाद पा रावणिसानं काहनूरगाई मारपत्रणेण। ताव ण चत्तकलंक जीवसुवण्णं खु णिव्वडइ॥१००।।
यावन्न तपोग्नितप्तं स्वदेहमूषायां जानपवनेन।
तावन्न त्यक्तकलंक जीवसुवर्णं हि नियंक्तीभवति ।।५०० ।। "इन्द्रिय जन्य विषय-व्यापार के रुक जाने पर और मन के संकल्प धक जाने पर, मिट जाने पर, योगी आत्मध्यान से ब्रह्म स्वरूप को प्रगट करता है।"
जो योगी शारीरिक दुःखों का अनुभव नहीं करता है वहीं आत्मा का अनुभव करता है। इसलिए हे क्षपक! शारीरिक दुःखों का अनुभव मत करो । पूज्यपाद स्वामी के द्वारा इष्टोपदेश में व्यक्त इस भावना से शारीरिक दुःखों को जीतने का प्रयत्न करो। वह भावना कहते हैं
“जब मेरी मृत्यु ही नहीं है, तो भन्म कैसे हो सकता है अर्थात् मैं नित्य निरंजन हूँ. निश्चय से अजर-अमर हूँ। जब मेरे व्याश्चि नहीं है, मैं वास्तव में ल्याधिरहित हूँ तो मेरे व्यथा (पीड़ा) कैसे हो सकती है। न मैं बालक हूँ, न मैं वृद्ध हूँ और न मैं युवा हूँ; ये सब पुहूल की पर्याय हैं।
हे आत्मन् ! इसलिए रागादि विभाब भावों को छोड़कर अनन्त ज्ञान स्वरूप अपनी आत्मा में लीन हो जावो क्योंकि आत्मा में स्थिर होने वाला ही क्षपक सुखी होता है।।९९ ॥
जब तक यह आत्मा रूपी सुवर्ण पाषाण तपरूपी अग्नि के द्वारा नहीं तपाया जाता है तब तक कर्मकालिमा से रहित नहीं होता। यह सूचित करते हैं
जब तक ज्ञान रूपी वायु से प्रज्वलित तपरूपी अग्नि के द्वारा देह रूपी मूपामें स्थित जीव रूपी सुवर्ण तपाया नहीं जाता है तब तक वह कर्म-कालिमा से रहित शुद्ध रूप से प्रकट नहीं होता ।।१०० ॥