Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 213
________________ आराधनासार - १७८ एकीभूतमिदं वसत्यविरतिं संसारभारोज्झितं शांतं जीवधन द्वितीयरहितं मुक्तात्मरूपं महः।। तथा ज्ञानादिगुणकथनेन ज्ञानशून्ध चैतन्यमात्रमात्मेति सारख्यमतं बुझ्यादिगुणोज्झितः पुमान् इति योगमतं च प्रत्युक्तम् ।।८८॥ सिद्धात्मानंतकालं यावदनंतसुग्वमनुभवतीत्याह कालमणंतं जीवो अणुहवइ सहावसंभवं सुक्खं। इंदियविसयातीदं अणोवमं देहपरिमुक्को ॥८९॥ कालमनंतं जीवोऽनुभवति स्वभावसंभवं सौख्यम् । इंद्रियविषयातीत अनुपमं देहपरिमुक्तः ।।८९।। अणुहवइ अनुभवति। कोसी। ज्ञानकमलाघनाश्लेषलालस: सिद्धजीव: । कां कर्मतामापनामनुभवति । सहायसुक्खसंभूई स्वभावसुखसंमूर्ति स्वभावात् आत्मस्वभावात् यत् संभूतं सुखं अनंतसुख तस्य संभूतिर्विभूतिर्लक्ष्मी; स्वभावसुरखसंभूति: तां स्वभावसुखसंभूति । अथवा स्वभावतो निसर्गतो या सुखसंभूति: स्वभावसुखसंभूतिस्तां। किं विशिष्टां स्वभावसुखसंभूति। इंदियविसयातीदं इंद्रियविषयातीतं इंद्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि तेषां विषयाः स्पर्शरसगंधवर्ण शब्दास्तदतीतं इंद्रियविषयातीतं विषयविरहितामित्यर्थः। पुनः कथंभूतां। अनुपमा उपमारहिता। कथं यावदनुभवति। कालमणतं अनंतकालपर्यंतमित्यर्थः । कीदृशः सिद्धः।। करते हैं अर्थात् मोक्ष के इच्छुक सम्मपदष्टि भव्यात्मा सिद्ध परमात्मा का निरन्तर ध्यान करते हैं। जो संसार से रहित है, शांत है, जीवधन है (आत्मप्रदेशों से युक्त है), द्वितीय रहित हे अर्थात् कर्मों की संगति से रहित एक शुद्धात्मा है, ऐसा मुक्तात्मा का स्वरूप महातेजस्वरूप है। इस गाथा में सिद्ध भगवान ज्ञानादि गुणों से युक्त हैं, इस कथन से जानशून्य चेतन मात्र है ऐसा कथन करने वाले सांख्य मत का खण्डन किया है तथा बुद्धि आदि गुणों से रहित आत्मा है, सिद्धावस्था में ऐसा कथन करने वाले योग मत्त का खण्डन किया है ।।८८ ।। सिद्ध भगवान अनन्त काल तक अनन्त सुखों का अनुभव करते हैं, सो कहते हैं देहरहित सिद्ध भगवान अनन्त काल तक इन्द्रियजन्य विषयों से रहित, अनुपम, स्वभाव से उत्पन्न मुख का अनुभव करते हैं ।।८९ ।। औदारिक, वैक्रियिक, आहारकी, तेजस और कामणि। ये पाँच प्रकार के शरीर हैं. सिद्ध भगवान पांचों प्रकार के शरीर से रहित हैं। इसलिए देह परिमुक्त हैं, वे सिद्ध भगवान आत्मा से उत्पन्न सुख रूपी समुद्र में लीन हैं, सदातृप्त हैं और लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, ज्ञानरूपी लक्ष्मी का धन आलिंगन करने में है लालसा जिनकी ऐसे सिद्ध भगवान स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण शब्द रूप पाँची इन्द्रियों के विषयों से रहित, स्वस्वभाव से उत्पन्न अनुपम सुख का अनन्त काल तक अनुभव करते हैं। सो ही कहा है

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