Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 218
________________ आराधनासार-१८३ विगलतु कर्मविषत्तरुफलानि मम भुक्तिमंतरेणैव । संचेतयेहमचलं चैतन्यात्मानमात्मानम् ।। इति । तदनु शोकं भयमवसादं क्लेशं कालुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्त्वोत्साहमुदीर्य च मनः प्रसाद्यं श्रुतैरमृतैः ।। आहारं परिहाप्य क्रमश: स्निग्धं विवर्धयेत्यानम्। स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमशः।। खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पंचनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्वयत्नेन ।। एवमुत्तमा गतिः साधिता ते कीदृशा इत्याह । धण्णा ते भयवंता धन्यास्ते भगवंत: ते पुरुषाः क्षपका धन्याः कृतपुण्याः तथा भगवंतः जगत्पूज्या इत्यर्थः ।।९१ ।। क्षपक निरन्तर विचार करता है कि हे भगवन् ! कर्मरूपी विषवृक्ष के फल मेरे द्वारा भोगे बिना ही खिर जावें, मैं चैतन्य स्वरूप अपनी आत्मा का निश्चल रूप से संचेतन-अनुभव करता रहूँ, स्व-स्वभाव में लीन रहूँ। क्षपक आजन्म महाव्रतों को धारण कर उपर्युक्त भावना के द्वारा अपने भावों को अपने स्वरूप में स्थिर करने का प्रयत्न करे। स्व-परिणामों की विशुद्धि के लिए क्षपक को और क्या करना चाहिए? रत्नकरण्ड श्रावकाचार में समन्तभद्र आचार्य ने कहा है शोक, भय, विषाद, राग, कलुषता और अरति का त्याग करके तथा अपने बल और उत्साह को प्रगट करके संसार के दुःख रूपी संताप को दूर करने वाले श्रुतरूपी अमृत के पान से (शास्त्रश्रवण से) स्वकीय मन को प्रसन्न करे। क्रम-क्रम से आहार (अन्न) का त्याग कर दूध और छाछ का प्रमाण बढ़ावे। फिर दुग्धादि स्निग्ध पदार्थों का त्याग करके रुक्ष कांजी आदि का सेवन करे । तत्पश्चात उष्ण जलपान का भी त्याग करके शक्ति के अनुसार उपवास करे। पश्चात् णमोकार मंत्र का जप करते हुए प्रयत्नपूर्वक प्राणों का विसर्जन करे | इस प्रकार जो भव्यात्मा उत्तम गति (समाधि) की साधना करते हैं, वे ही महापुरुष धन्य हैं, कृतपुण्य हैं, जगत्पूज्य हैं और भगवान हैं।९१ ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255