Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनाभार १७६
एवं समस्तकर्मक्षये सति ध्यानमाहात्म्या देवाप्रसिद्धत्वस्य जीवस्य अनंत गुणा: प्रकटीभवति ततः प्राह-झाणस्स पण दुल्लहं किंपि ध्यानस्य दुर्लभं न किंचिदिति किंतु ध्यानमाहात्म्यात्सर्वं सुलभमिति । अथवा एवं व्याख्या | अनुक्तमपि ध्यानपदमस्यां गाथायामत्यूह्यं । ध्यानं कर्तृ ध्यानिनो योगिनः अनंतज्ञान चतुःस्कंध पयडेड़ प्रकटयेत् अनंतज्ञान-चतुः स्कंधमिति कर्मपदं अण्णेवि गुणा य तहा तथा अन्यानपि गुणान् प्रकटयेत् अत एव ध्यानस्य दुर्लभं किचिन्नास्ति ॥ ८७ ॥
कर्मकलंकमुक्तः खल्वयमात्मा निरवशेषं लोकालोकं परिछिनत्तीत्यावेदयति
जाइ परसड़ सव्वं लोयालोयं च दव्वगुणजुत्तं । एयसमयस्स मज्झे सिद्धो सुद्धो सहावत्थो ॥ ८८ ॥
जानाति पश्यति सर्वं लोकालोकं च द्रव्यगुणयुक्तं एकसमयस्य मध्ये सिद्धः शुद्धः स्वभावस्थः ॥ ८८ ॥
जाणइ जानाति परिच्छिनत्ति वेत्ति तथा पस्सइ पश्यति विलोकयति । कोसी । सिद्धः व्यक्तिरूपः परमात्मा । किं जानाति पश्यतीत्याह । लोयालोयं च लोक्संते विलोक्यते जीवादयः पदार्था यस्मिन् स लोकस्तद्विपरीतोऽलोक, लोकश्च अलोकश्च लोकालोकस्तं सर्वं निरवशेषं । कथंभूतं लोकालोकः । दव्वगुणजुत्तं द्रव्यगुणयुक्तं द्रव्यपर्यायसंयुक्तं द्रव्याणि जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकाला:, द्रव्यगुणाः
इस प्रकार ध्यान के माहात्म्य से समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर अप्रसिद्ध जीव के अनन्त गुण प्रकट होते हैं। क्योंकि ध्यान से कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है, ध्यान के माहात्म्य से सारी वस्तुएँ सुलभता से प्राप्त हो जाती हैं।
इस गाथा में ध्यान शब्द का प्रयोग नहीं है परन्तु प्रकरणवश ऊपर से ध्यान शब्द का प्रयोग होता है सारांश यह है कि निर्विकल्प ध्यान के बल से सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं और आत्मा में अनन्तगुण प्रकट होते हैं। अत: हे क्षपक ! मन को स्थिर करके आत्मध्यान करने का प्रयत्न करो ॥ ८७ ॥
कर्मकलंक से मुक्त आत्मा सारे लोक अलोक को जानता देखता है, सो कहते हैं
स्वकीय शुद्ध स्वभाव में स्थित सिद्ध भगवान एक समय में लोकाकाश और अलोकाकाश को तथा लोकाकाश में स्थित सर्व द्रव्यों और उनकी गुण पर्यायों को एक साथ जानते और देखते
हैं ॥ ८८ ॥
जिसमें छहों द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं और जहाँ केवल शुद्ध आकाश ही है, अन्य द्रव्य नहीं हैं उसे अलोकाकाश कहते हैं।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य है
जीव का गुण चेतना वा ज्ञान दर्शन है। जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध वर्ण हैं वह मुदल है अर्थात रूप, रस आदि पुट्रल के गुण हैं।
गर्नि परिणत जोव और मुगल के गमन में सहकारी होना धर्म द्रव्य का लक्षण है ( गुण है ) । ठहरते हुए जीव और पुद्गल के अहरने में सहकारी कारण अधर्म द्रव्य है ।