Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - १७२
किंविशिष्टः आत्मानलः। सुहासुहडहणो नरेंद्रसुरेंद्रफणीन्द्रसाम्राज्योदयहेतुः शुभकर्म नारकादिदुःखकारणमशुभकर्म शुभं च अशुभं च शुभाशुभे तयोर्दहनः शुभाशुभकर्मेधनसंधातप्लोषकारक इत्यर्थः ।।८४।। स्वात्मोत्थपरमानंदसुधासिंधौ निमग्ने मनसि आत्मैव परमात्मा भवतीत्यावेदयति
उव्वसिए मणगेहे णडे णीसेसहारणावादारे । विप्फुरिए ससहावे अप्पा परमप्पओ हवड़ ॥८५॥
उसिते मनोगेहे नष्टे नि:शेषकरणव्यापारे ।
विस्फुरिते स्वसद्भावे आत्मा परमात्मा भवति ।।८५।। अप्पा परमप्पओ हवइ भवति संजायते । कोसी। आत्मा शरीराधिष्ठानो जीवः । कथंभूतो भवति। परमात्मा भवति। यदुक्तम्
उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा ।
मथित्वात्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरुम्॥ कस्मिन् सति आत्मा परमात्मा भवतीत्याह । उव्यसिए मणगेहे मनोंतरंग तदेव गेहं तस्मिन् मनोगेहे उद्भूसिते सति विनष्टे सति सर्वविषयव्यापारेभ्यः पराङ्मुखतामागते सति । मनसो विनाशकरणं परमात्मध्यान - मेव। न केवल उद्रसिते मनोगेहे। णटे पीसेसकरणवावारे नष्टे नि:शेषकरणव्यापारे करणानामिद्रियाणां
जिस समय मनरूपी ज्ञानधारा शुद्धात्मा में लीन होती है यानी मन संकल्प-विकल्पों से रहित हो जाता है तब धरणेन्द्र, सुरेन्द्र, चक्रवर्ती आदि की सामग्री के कारणभूत शुभ कर्म और तिर्यंच, नरक, कुमानुष वा शारीरिक मानसिक पीड़ाजन्य अशुभ कर्म ईंधन को जलाने में समर्थ आत्मारूपी (शुद्धात्मा के ध्यान रूप) अग्नि उत्पन्न होती है अर्थात् सारे कर्मों का नाश करने में शुद्धोपयोग ही समर्थ है ॥४४॥
स्वात्मा से उत्पन्न परमानन्द रूपी अमृतसागर में निमग्न हुए मन में आत्मा ही परमात्मा हो जाता है, ऐसा कथन करते हैं
सम्पूर्ण इन्द्रिय व्यापार के नष्ट हो जानेपर, मनरूपी घर के उजड़ जाने पर यानी संकल्पविकल्प से रहित हो जाने पर और स्व-सद्भाव के स्फुरायमान हो जाने पर आत्मा परमात्मा हो जाता है ॥८५॥
"शरीरस्थ जीव (आत्मा) की उपासना करके परमात्मा बन जाता है। सो ही कहा है- जैसे वृक्ष का मथन करने पर वृक्ष से अग्नि उत्पन्न होती है अर्थात जैसे वृक्ष की उपासना से वृक्ष ही अमि रूप हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा की उपासना करके आत्मा ही परमात्मा हो जाता है अत: आत्मा ही आत्मा के द्वारा उपासना करने योग्य है।
अंतरंग मानसिक संकल्प-विकल्प के नष्ट हो जाने पर अर्थात् सर्व विषय व्यापार से मन के विमुख हो जाने पर. स्पर्शन आदि इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों से व्यावन होकर शान्त हो जाने पर आत्मा परमात्मा बन