Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - १७०
आत्मस्वभाव परभावभिन्नमापूर्णमायतविमुक्तमेकम् ।
विलीनसंकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ।। तरमाच्छ्न्य ध्यानमभिलषता मुमुक्षुणा शुद्धनय एवेष्टव्य इति ।।८३ ।।
विशदानंदमयात्मनि स्वात्मनि यस्य मनो विलीयते तस्यात्मा कर्मनिर्मूलनक्षमः प्राकट्यमुपढौकते इत्याह
लवणव्व सलिलजोए झाणे चित्तं विलीयए जस्स। तस्स सुहासुहडहणो अप्पाअणलो पयासेड़ ।।८४ ।।
जवापीर मलिलगोगे ध्याने चित्तं बिलीयते यस्य ।
तस्य शुभाशुभदहन आत्मानलः प्रकाशयति ॥८४ ।। पयासेड़ प्रकाशयति प्रकटी भवति । प्रद्योतते इति यावत् । कोसौ। अप्पाअणलो आत्मैव अनलो वह्निः आत्मानलः आत्महुताशनः । कस्यात्मानलः प्रकटीभवति इत्याह । झाणे चित्तं विलीयए जस्स यस्य
__सर्व कर्मों के निमित्त से होने वाले पर-भावों से जो सर्वथा भिन्न है, स्व-स्वभावसे परिपूर्ण है अर्थात् परिपूर्ण ज्ञान, दर्शन के धारी है, जो आदि अंत से रहित है अर्थात् जो उत्पत्ति और विनाश से रहित है, एक है- (अद्वितीय है) अर्थात् जो गुण-गुणी के भेद से रहित है, “द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म वा धर-पुत्रपौत्रादिक पुद्गल द्रव्यों में अपनी कल्पना करना ये मेरे हैं' ऐसा चिन्तन संकल्प है और मैं इनका हूँ' वा ज्ञेयों के भेद से ज्ञान में भेद मानना विकल्प है" इन सारे संकल्प, विकल्प जालों से रहित आत्मस्वभाव है, उस आत्मस्वभाव को प्रकाशित करने वाले शुद्धनय का उदय होता है। अर्थात् भेदविवक्षा रहित आत्मस्वभाव के आस्वादन का इच्छुक अनादि काल के संस्कार के कारण बार-बार विभ्रम को प्राप्त होता है परन्तु ध्यान की भावना और ध्यान की चिंता होती है। इसलिए शुद्ध निर्विकल्प शून्य ध्यान के इच्छुक मुमुक्षु को शुद्ध नय का ही आश्रय लेना चाहिए। शुद्ध नय का आश्रय लेकर निर्विकल्प होने का प्रयत्न करना चाहिए ।।८३ ।।
___ विशद आनन्दमय स्वात्मा में जिसका मन लीन होता है, उसी की आत्मा कर्मों का निर्मूलन करने में समर्थ होती है ऐसा कहते हैं
"जिस प्रकार जल में नमक की डली एकमेक हो जाती है उसी प्रकार जिसका चित्त ध्यान में लीन हो जाता है उसके हृदय में शुभ एवं अशुभ कर्मों को जलाने वाली आत्मरूप अग्नि उत्पन्न होती है ॥८४॥
जिस समय पंचेन्द्रियजन्य विषयों से पराङ्मुख होकर शुद्धात्मस्वरूप में निष्ठा रखने वाले योगी का चित्त (मन) निर्विकल्प समाधि लक्षण धर्मध्यान वा शुक्लध्यान में विलीन होता है वा चिद्रूप में स्थिर हो