Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
View full book text
________________
आराधनासार- १६८
चित्स्वभावः खल्वयमात्मा मोक्षमार्गो मोक्षो वेत्यावेदयति
एवं गुणो हु अप्पा जो सो भणिओ हु मोक्खमग्गोत्ति । अहवा स एव मोक्खो असेसकम्मक्खए हवइ ॥ ८२ ॥
एवं गुणो ह्यात्मा यः स भणितो हि मोक्षमार्ग इति । अथवा स एव मोक्षः अशेषकर्मक्षये भवति ॥ ८२ ॥
एवं गुणी हु अप्पा आत्मा य एवंभूता अनंतज्ञानादयो गुणा यस्य स एवंगुणः य एवंगुण आत्मा स एव मोक्षमार्ग इति भणितः कथितः सकलकर्मविप्रमोक्षलक्षणो मोक्षस्तस्य मार्गे दर्शनज्ञानचारित्राणि एवंगुणविशिष्टः खल्वात्मा साक्षान्मोक्षमार्ग इत्यवगंतव्यः अहवा अथवा मोक्षमार्गेण किं स एव मुक्खो स एवात्मा मोक्षः निरतिशयानंदसुखरूपः । कदा स आत्मा मोक्षो भवतीत्याह । असेसकम्भक्खये हवइ अशेषाणि समस्तानि मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्नानि यानि कर्माणि ज्ञानावरणदर्शनावरणादीनि तेषां क्षयः सामस्तेन विनाश: अशेषकर्मक्षयस्तस्मिन्नशेषकर्मक्षये सति स एव आत्मा मोक्षो भवतीत्यर्थः ॥ ८२ ॥
निश्चय से चित् स्वभाव वाला यह आत्मा ही मोक्षमार्ग है, आत्मा ही मोक्ष है, ऐसा कहते हैंइस प्रकार के गुणों से विशिष्ट जो आत्मा है, वही मोक्षमार्ग है और वह आत्मा ही अशेष कर्मों का क्षय होने पर मोक्ष रूप होती है ॥ ८२ ॥
सर्व कर्मों से रहित जो शुद्धात्मा की अवस्था है, वह मोक्ष है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की एकता मोक्षमार्ग या मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है।
अनन्त ज्ञानादि गुणों से विशिष्ट आत्मा हो सम्यग्दर्शन आदि गुणों का आधार है इसलिए आत्मा ही साक्षात् मोक्षमार्ग है, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि आत्मा को छोड़कर अन्यत्र सम्यग्दर्शनादि नहीं पाये जाते हैं।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ मूल कर्म प्रकृतियाँ हैं ।
ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की नौ, वेदनीय की दो, मोहनीयकी अढाईस, आयु की चार, नामकर्म की तिरानवे, गोत्र की दो और अन्तराय की पाँच ये एक सौ अड़तालीस उत्तर कर्मप्रकृतियाँ हैं। इन सर्व मूल- उत्तर प्रकृतियों के क्षय हो जाने पर मोक्ष होता है, वह मोक्ष भी आत्मा का ही होता है, आत्मा और आत्मा ही ही कर्मों से छूटती है अतः मोक्ष भी आत्मा ही है। अर्थात् आत्मा ही मोक्ष का कारण मोक्षरूप कार्य है, ऐसा समझकर आत्मा की आराधना करनी चाहिए ॥ ८२ ॥