Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 201
________________ आराधनासार - १६६ किं तु जो खलु सुद्धो भावो यः खलु निश्चयेन शुद्धः कर्ममलविनिर्मुक्तः भावः तमेव भावं रत्नत्रय जाण जानीहि। तथाहि एकमेव परमात्मानमात्मनि वर्तमानममंदानंदमेदुरमात्मनैव यो ध्यायति तेन रत्नत्रयमेवाराधितं भवेदिति भावार्थः ।।८० ।। अशेषकामक्रोधलोभमदमात्सर्याधिभिावभावपरिकामे कत्यादनमा शून्य इत्याचाह तत्तियमओ हु अप्पा अवसेसालंबणेहिं परिमुक्को। उत्तो स तेण सुण्णो णाणीहि ण सव्वदा सुण्णो ।।८१।। तत्त्रिकमयो हि आत्मा अवशेषालंबनैः परिमुक्तः । उक्तः स तेन शून्यो ज्ञानिभिर्न सर्वदा शून्यः ।।८१ ॥ अप्पा आत्मा अतति गच्छति स्वकीयान् द्रव्यपर्यायानित्यात्मा। किं विशिष्टः। तत्तियमइओ तत्त्रितयमयः दर्शनज्ञानचारित्रमयः । ज्ञानिभिरात्मा दर्शनज्ञानमयो निर्दिष्ट इति । यदुक्तम् अद्वैतापि हि चेतना जगति चेद् द्राज्ञप्तिरूपं त्यजेत् तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्सास्तित्वमेव त्यजेत् । तत्त्यागे जड़तावतोपि भवति व्याप्यो विना व्यापकादात्मा चांतमुपैति तेन नियतं दृग्ज्ञप्तिरूपास्तु चित् ।। हे आत्मन् ! निश्चय से आत्मा के कर्ममलरहित जो शुद्ध भाव हैं उन्हीं भावों को रत्नत्रय समझो। तथाहि, जो स्व आत्मा में अपनी आत्मा द्वारा परमानन्द से व्याप्त परमात्मा का ध्यान करता है, परमात्मा के गुण-स्मरण में अपने मन को स्थिर करता है, वही रत्नत्रय की आराधना करता है, ऐसा जानना चाहिए। इसलिए हे क्षपक ! अपने मन को परमात्मा के गुण-स्मरण में स्थिर करो। बाह्य वासना से मन को शून्य करके स्वात्म-चिन्तन में स्थिर करो |१८० ।। सम्पूर्ण काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य आदि विभाव-भावों से रहित ही यह आत्मा शून्य कहलाता है, उसका कथन करते हैं रत्नत्रय स्वरूप यह आत्मा जब अशेष रागादि अवलम्बनों से रहित हो जाता है, उसी को शून्य कहा है- क्योंकि ज्ञानादि से सर्वदा शून्य आत्मा कभी नहीं होता है ।।८१ ।। अपनी द्रव्य, गुण, पर्यायों को जो ‘अतति' प्राप्त होता है वा 'अत् धातु ज्ञान अर्थ में भी है अतः जो स्व-पर को जानता है, वह आत्मा है और वह आत्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्रमय है, क्योंकि ज्ञानियों ने आत्मा को ज्ञान, दर्शनमय कहा है। सो ही कहा है-- इस जगत् में अद्वैत भी चेतना अपने दर्शन, ज्ञान, रूप स्वरूप को नहीं छोड़ती है। यदि चेतना स्वकीय सामान्य (दर्शन) और विशेष (ज्ञान) से रहित हो जायेगी तो उसका अस्तित्व भी नष्ट हो जायेगा वा वह अपने अस्तित्व का भी परित्याग कर देगी । जब चेतना अपने अस्तित्व दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग

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