Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 183
________________ आराधनासार-१४८ एवं चित्तानिरोधकस्य नरकगतिरेव फलं सदृष्टांत प्रदर्य तनिरोधं कुरुध्वमित्युपदिश्य वाधुना मनोवशीकरणमुपदिश्य तत्फलं च निदर्शयति सिक्खह मणवसियरणं सवसीहूएण जेण मणुआणं । णासंति रायदोसे तेसिं णासे समो परमो ॥६४ ।। उवसमवंतो जीवो मणस्स सक्केड़ णिग्गहं काउं। णिग्गहिए मणपसरे अप्पा परमप्पओ हवइ ॥६५॥ जुअलं ।। शिक्षध्वं मनोवशीकरणं स्ववशीभूतेन येन मनुजानाम् । नश्येते रागद्वेषौ तयो शे समः परमः ।।६४।। उपशमवान् जीवो मनसः शक्नोति निग्रहं कर्तुम् । निगृहीने पन:प्रसरे आत्मा परमात्मा भवति ॥६५॥ युगलम्। मणसियरणं मनोवशीकरणं मनो अवशं वशं करणं मनसश्चित्तस्य वशीकरणं आत्मायत्तीकरण मनोवशीकरण भो जनाः सिक्खह शिक्षध्वं अभ्यस्यत: जेण येन मनसा सवसीहूएण स्ववीभूतेन स्वाधीनतां गतेन मणुआणं मनुजानां मनुष्याणां रागदोसे रागद्वेषौ इष्टानिष्टयोः प्रीत्यप्रीतिरूपौ णासंति नश्यतः दूरीभवतः तेसिं तयो रागद्वेषयोः णासे नाशे विनाशे परमो परम उत्कृष्टः सम; उपशम: वीतरागत्वाधारः भवतीति क्रियाध्याहारः उवसमवंतो उपशमवान् रागद्वेषोपशमलक्षणवान् जीवो जीवः आत्मा भणस्स मनसश्चित्तस्य णिग्गहं निग्रहं विनाश काउं कर्तुं सक्केइ शक्नोति समर्थो भवति मनःप्रसरे चित्तविस्तारे णिग्गहिए निग्रहीते साकांक्षचित्ते क्षयावस्था नीते सति अप्पा आत्मा जीवः घातिकर्मचतुष्टयसद्भावात् परमप्पउ परमात्मा घातिकर्मचतुष्टयाभावप्रादुर्भावक्रेवलज्ञानाद्यनंतगुणव्यक्तिविराजमानो हवइ भवतीति गाथार्थ: ।।६४ |६५ ।। इस प्रकार 'मन की चंचलता नरक गति का कारण है' इसको दृष्टान्त के द्वारा कह करके, 'बाह्य में जाते हुए मन को स्त्र में स्थिर करो', ऐसा उपदेश देकर अब मन को वश में करने का उपाय बताकर मन-निरोध के फल का कथन करते हैं हे क्षपक! मन को वश में करने का अभ्यास करो। क्योंकि मन के स्ववश हो जाने पर मानवों के हृदयस्थ रागद्वेष नष्ट हो जाते हैं। रागद्वेष के नष्ट हो जाने पर परम समता भाव की प्राप्ति होती है। उपशम (समता) भाव को प्राप्त हुआ जीव मन का निग्रह करने में समर्थ होता है और मन के प्रसार का निग्रह हो जाने पर आत्मा परमात्मा बन जाता है ॥६४-६५॥ आचार्यदेव कहते हैं कि हे क्षपक ! सर्वप्रथम तुम स्वकीय अवश (बाह्य विषय-वासनाओं में दौड़ने वाले) मन को अपने वश में करो, स्वाधीन करने का अभ्यास करो। क्योंकि मन के वश में हो जाने पर इष्टानिष्ट पदार्थों में प्रीति और अप्रीति रूप रागद्वेष नष्ट हो जाते हैं। रागद्वेष के नष्ट हो जाने से मानव को परम उपशम भाव प्राप्त होता है, रागद्वेष के नाश होने पर वीतरागत्व के आधारभूत परिणाम उत्पन्न होते हैं। उपशमवान आत्मा पूर्ण

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