Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार-१४९
ननु केन प्रकारेणास्य मनःप्रसरस्य निवारण भवतीति प्रश्ने प्रत्युत्तरमाह
जहं जहं विसएसु रई पसमइ पुरिसस्स णाणमासिज्ज । तह तह मणस्स पसरो मज्जइ आलंबणारहिओ॥६६॥
यथा यथा विषयेषु रतिः प्रशमति पुरुषस्य ज्ञानमाश्रित्य !
तथा तथा मनसः प्रसरो भज्यते आलंबनारहितः ॥६६ ।। जह जह यथा यथा विसएसु विषयेषु इंद्रियार्थेषु पुरिसस्स पुरुषस्य जीवस्य रई रतिःरागः पसमइ प्रशांत उपशमाते उपशमतां गच्छात। किंकृत्वा । णाणमासिज्ज ज्ञानमाश्रित्य पूर्वं तावदस्य जीवस्य रतिरनादि-कालसंबंधवशात् परविषयाधारा इदानीं तु कालादिलब्धि समवाप्य । स्वसंवेदनज्ञानेनाकृष्टा सती ज्ञानमाश्रयतीति तात्पर्येण पूर्वार्धगाथार्थः। तह तह तथा तथा मणस्स मनसः चितस्य पसरो प्रसरो विस्तार: आलंबना-रहिओ आलंबनारहितः सन् रत्याश्रयमुक्तः सन् भज्जइ भज्यते विनश्यति अस्य मन:प्रसरस्य रतिरेवाश्रयः रतिस्तु विषयाश्रयं परित्यज्य ज्ञानाश्रयणी जाता यत्रैव रतिस्तत्रैव मनःप्रसर इति श्रुतिः। अतः मन:प्रसरोपि ज्ञानाश्रयी भवतीत्याथातं मनोप्यात्मानं ज्ञानलीनं करोतीति तात्पर्यार्थः ॥६६॥
रूप से मन को भिग्रह करने में समर्थ होता है। जिनका मन पूर्ण रूप से बाह्य विषयों से विरक्त होकर विलीन हो जाता है, निर्विकल्प हो जाता है, निर्विकल्प समाधि को प्राप्त हो जाता है तो वह अन्तर्मुहूर्त में चारघातिया कर्मों का नाश कर अर्हन्त अवस्था को प्राप्त होता है। केवलज्ञानादि अनन्त क्षायिक गुणों से युक्त होकर सकल परमात्मा बन जाता है ।।६४-६५ ।।।
किन कारणों से वा किस प्रकार से मन के प्रसार का निरोध किया जाता है? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं
जैसे-जैसे ज्ञान का आश्रय लेकर पुरुष की विषयों में रति (राग) नष्ट हो जाती है, वैसेवैसे निरालम्ब (अवलम्ब रहित) हो जाने से मन का प्रसार भी नष्ट हो जाता है ।।६६॥
मन की चंचलता वा विषयों से विरक्ति होने का वा मन को वश में करने का मुख्य कारण ज्ञान है। क्योंकि ज्ञान के अवलम्बन से आत्मा की पंचेन्द्रिय विषयों की रति (राग) नष्ट हो जाती है अर्थात् काललब्धिवश यह आत्मा परपदाधों में जाने वाली ज्ञानधारा को स्वसंवेदन ज्ञान के बल से रोककर स्व में स्थिर करने का प्रयत्न करता है, तब पाँचों इन्द्रियजन्य विषयों से रति नष्ट हो जाती है और विषयों के अवलम्बन से रहित होने से मन का प्रसार का चंचलता भी नष्ट हो जाती है। अर्थात् ज्ञानधारा विषयों के आश्रय को छोड़कर ज्ञान में लीन हो जाती है। अतः मन के प्रसार को ज्ञान में लीन करने का अभ्यास करना चाहिए। अथवा मनके प्रसार का आश्रय रति है, रति का आश्रय विषय है, इसलिए इन्द्रियजन्य विषय का परित्याग कर देने पर मन ज्ञान में लीन हो जाता है। अत: भन को ज्ञान में लीन करने के लिए विषयों का परित्याग करो ||६६ ॥