Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार-१५२
कुतः पुनः पल्लवा हुंति पल्लया भवति क्रुतः पुनरपि पल्लवाः प्ररोहति । यथा मूलाभावे अंकुरपल्लवादीनामभाव: तथा मनोव्यापाराभावे इंद्रियाणां विषयगमनाभाव इत्यर्थः ||६९ ।। मनोव्यापारविनाशफलमुपदर्य तन्मात्रन्यापारे विनष्टे उत्पन्ने च विशेषमुपदर्शयन्नाह
मणमित्ते वावारे णटुप्पण्णे य बे गुणा हुंति। णटे आसवरोहो उप्पण्णे कम्मबंधो य ॥७०।।
मनोमाने व्यापारे नष्टे उत्पन्ने च द्वौ गुणौ भवतः ।
नष्टे आस्रवरोधः उत्पन्ने कर्मबंधश्च ।।७७ ।। मणमित्ते मनोमात्रे चित्तमात्रे संकल्पविकल्पलक्षणमात्रे वावारे व्यापारे णट्टे नष्टं विनष्टे उपण्णे य उत्पन्ने च जातमात्रे च वे गुणा ही गुणौ संवरकर्मबंधलक्षणौ हुंति भवत्तः। कस्मिन् सति को गुणो भवतीत्याह । देने पर) उसमें पत्तों की उत्पत्ति नहीं होती है। जैसे वृक्ष की जड़ कट जाने पर उसमें अंकुर-पने-फूल-फलादि नहीं होते हैं, उसी प्रकार मनोव्यापार के नष्ट हो जाने पर अर्थात् मन के संकल्प विकल्प नष्ट होकर निर्विकल्प हो जाने पर इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति का भी अभाव हो जाता है ॥६९।।
मनोव्यापार के नष्ट होने पर जो फल होता है उसको दिखाकर मन के संकल्प-विकल्प रूप व्यापार के होने पर क्या होता है, उसका विशेष रूप से कथन करते हुए आचार्य कहते हैं
मनोव्यापार के नष्ट हो जाने पर और मनोव्यापार के उत्पन्न होने पर भिन्न-भिन्न दो गुण (गुण दोष) होते हैं। मननिमित्त व्यापार के नष्ट होने पर आसव का निरोध होता है और मनोव्यापार के उत्पन्न होने पर कर्मबन्ध होता है॥७०॥
मानसिक संकल्प-विकल्प हो मनोव्यापार हैं। मानसिक संकल्प-विकल्प के नष्ट हो जाने पर को का आगमन रुक जाता है अर्थात आस्रवनिरोध लक्षण संवर होता है और जब मनोव्यापार (संकल्पविकल्प) उत्पन्न होता है तब कर्मबन्ध होता है।
कर्मबंध चार प्रकार का है- प्रकृति बंध, प्रदेश बंध, स्थिति बंध और अनुभाग बंध ।
स्वभाव, प्रकृति, शील एकार्थवाची हैं अतः कमों का स्वभाव है यह प्रकृति बंध है- जैसे ज्ञानावरणीय कर्म का स्वभाव है- ज्ञान गुण का आच्छादन करना । दर्शनावरणीय का स्वभाव है आत्मा के दर्शन गुण का आच्छादन करना। सुख दुःख देना वा सुरख वा दुःख का वेदन कराना वेदनीय कर्म का स्वभाव है। जो आत्मा को मोहित करता है अर्थात् मोहनीय कर्म का स्वभाव है आत्मा को मोहित. कलुषित वा कषाययुक्त करना। आयु कर्म का स्वभाव है जीव को शरीर में रोक कर के रखना।
नाम कर्म का स्वभाव है- शरीर के निमित से आत्मा के अनेक आकार बनाना। गोत्र कर्म का स्वभाव है आत्मा को उच्च-नीच कुल में उत्पन्न करना । अन्तराय का स्वभाव है- दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न डालना |