Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 192
________________ आराधनासार-१५७ भो क्षपक जड़ इच्छहि यदि चेत् इच्छसि वाछसि अभिलषसि । किं तत् । कामक्खयं कर्मणां द्रव्यभावरूपाणां क्षयो विनाशः कर्मक्षयस्तं कर्मक्षयं तदा सुण्णं धारेहि शून्य लाभपूजाभोगकांक्षाविरहितं धारय । किं तत् । णियमणो निजमनः संकल्पविकल्परूपं स्वकीयचित्तं । कथं । झक्ति झटिति त्वरितं । ततश्च सुण्णीकमग्नि चिले लीकृते त्रिपपनि मुखीयो सिरे नाशि। किं स्यादित्याह। अप्पा पयासेहि आत्मा प्रकाशयति जलधरपटलविघटनाविरिव प्रकटीभवति। कथं। गूण नूनं निश्चित। तथाहि-अयमात्मा सकलविमलकेवलज्ञानमयमूर्तिः रागद्वेषादिदोषोज्झिते मनसि सर्वभावविलये वावभासते। यदुक्तं सर्वभावविलये विभाति यत्सत्समाधिभरनिर्भरात्मनः । चित्स्वरूपमभितः प्रकाशकं शर्मधाम नमताद्भुतं महः॥ यदि चित्तमुद्वासयसि तदा स्वात्मानं पश्यसीत्यावेदयति - उव्वासहि णियचित्तं वसहि सहावे सुणिम्मले गंतुं। जड़ तो पिच्छसि अप्पा सण्णाणो केवलो सुद्धो ।।७५ ।। उद्वासयसि निजचित्तं वससि सद्भावे सुनिर्मले गंतुम् । यदि तदा पश्य स्वात्मानं संज्ञान केवल शुद्धम् ।।७५ ।। हे क्षपक ! यदि तू द्रव्य कर्म, भाव क्रर्म, रूप सर्व कर्मों का क्षय करना चाहता है तो संकल्पविकल्प से आकुलित अपने मन को ख्याति, लाभ. पूजा और भोगों की कांक्षा आदि विचारों (भावनाओं) से शीघ्र ही शून्य कर | क्योंकि मन के निर्विकल्प हो जाने पर, पंचेन्द्रियजन्य विषयों से विमुख हो जाने पर, आत्मज्योति का प्रकाश होता है। जैसे बादलों का विघटन हो जाने पर, सूर्य प्रकट होता है। तथाहि - रागद्वेष से रहित मन के हो जाने पर वा सर्व विभाव भावों के विलीन हो जाने पर निर्मल ज्ञान में सकल विमल केवल-ज्ञानमय मूर्ति यह आत्मा अवभासित होती है, प्रकट होती है। सो ही कहा है जब सत्समाधि में रत, निर्भर आत्मा के सर्व विभाव भावों का नाश हो जाता है, तब चारों तरफ से अद्भुत महातेज, सुखधाम, चित्स्वरूप प्रकाश (केवलज्ञान) प्रकट होता है, उस महातेजस्वरूप केवल ज्ञान को नमस्कार करो |७४ ।। हे क्षपक ! यदि तू चित्त को निर्विकल्प करता है (करेगा) तो निर्मल स्वात्मा का अवलोकन करेगा। ऐसा आचार्य कहते हैं हे क्षपक ! तू स्वकीय चित्त को विषयों से विमुख करता है, अपने सुनिर्मल आत्मा को जानने के लिए स्व-स्वभाव में मन को स्थिर करता है, तो तू शुद्ध केवलज्ञानमय अपनी आत्मा को देख्न सकता है ॥७५॥

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