Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - १६१
स्वसद्भावे यः शून्यः स कीदृश इत्याह । ससहावे जो सुण्णो स्वसद्भावे टंकोत्कीर्णपरमानदैकस्वभावे यो ध्याता शून्योऽविकल्पः स गगनकुसुमनिभो भवति च, गगनस्य आकाशस्य कुसुमं गगनकुसुमं तन्निभः गगन-कुसुमनिभः आकाशकुसुमतुल्यः स मिथ्यारूपी भवतीत्यर्थः । ततोऽमंदचिदानंदोनिरुपमसुखामृतरसं पिपासुना विशुद्धे स्वात्मनि सावधानीभूय स्थातव्यं इति मनःसंयमनम् ।।७६ ।। शून्यध्यानप्रविष्टः क्षपकः कीद्गवस्थो भवतीत्याह
सुण्णज्झाणपइट्ठो जोई ससहावसुक्खसंपण्णो । परमाणंदे थक्को भरियावत्थो फुडं हवइ ॥७७॥
शून्यध्यानप्रविष्टो योगी स्वसद्भावसौख्यसंपन्नः ।
परमानंदे स्थितो भृतावस्थः स्फुटं भवति ।।७७॥ जोई योगी क्षपको भृतावस्थो भवति । कीदृशो योगी। सुण्णज्झाणपइट्ठो शून्यध्यानप्रविष्टः शून्य च ध्यानं च शून्यध्यानं निर्विकल्पसमाधिलक्षणं तत्र प्रविष्टः स्थितः शून्यध्यानप्रविष्टः निर्विकल्पसमाध्याविष्टः। यत्र च
जायते विरसा रसा विघटते गोष्ठी कथाकौतुकं, शीर्यते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरेपि च । जोषं वागपि धारयंत्यविरतानंदात्मन: स्वात्मन
श्चिंतायामपि यातुमिच्छति मनो दोषैः समं पंचताम् ।। सद्भाव से शून्य वस्तु कैसी होती है, सो कहते हैं। टंकोत्कीर्ण परमानन्द अद्वितीय रूप स्वस्वभाव से जो ध्याता शून्य हो जाता है, स्व-स्वभाव से रहित अविकल्प हो जाता है, वह आकाश के फूल के समान मिथ्यात्व रूप हो जाता है अर्थात् उसका अभाव हो जाता है। इसलिए अमन्द चिदानन्द आत्मा से उत्पन्न निरुपम सुखामृत रस के पिपासु क्षपक को विशुद्ध स्व-आत्मा में सावधान होकर स्थिर होना चाहिए। स्वकीय मन को स्वस्वभाव में स्थिर करना चाहिए ॥७६ ||
शून्य ध्यान में प्रविष्ट क्षपक की कैसी अवस्था होती है, उसका कथन करते हैं
शून्य ध्यान में प्रविष्ट योगी स्व सद्भाव रूप सुखमें सम्पन्न होकर परमानन्द में स्थित होता है, स्फुट रूप से भृतावस्था को प्राप्त होता है॥७७॥
योगी (क्षपक) निर्विकल्प समाधिलक्षण, शून्य ध्यान में प्रविष्ट होता है। जहाँ पर
“जिस शून्य (निर्विकल्प) ध्यान में रस विरस हो जाते हैं, कथा-कौतुक-गोष्ठी विघट जाती है अर्थात् वार्तालाप नष्ट हो जाता है, विषय-वासना शीर्ण हो जाती है तथा उस योगी की शरीर में भी प्रीति नष्ट हो जाती है, वचन भी मौन को धारण कर लेते हैं। निरन्तर आनन्द स्वरूप स्वात्मा की चिन्ता में अर्थात् स्वात्म चिन्तन में मन भी सर्व दोषों के साथ मृत्यु को प्राप्त होना चाहता है, अर्थात् निर्विकल्प ध्यान में मन, वचन, काय की सारी क्रियाएँ निश्चल हो जाती हैं।"