Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 191
________________ आराधनासार-९५६ गलइ गलति विलीयते क्षयं याति। किं तत् । कम्म कर्म। कीदृशं । पुराणं पुरातनं अनेकभवांतरोपार्जित। न केवलमनेकभेदभिन्न कर्म विगलति किंतु केवलणाणं पयासेड़ केवलज्ञानं केवलं च तत् ज्ञानं च केवलज्ञानं प्रकाशयति आविर्भवति प्रकटीभवति । कस्मिन सति । खीणे मण-संचारे प्रक्षीणे मन:संचारे संचरण संचार; मनसः संचारो मन:संचारस्तस्मिन् मनःसंचारे क्षयं विनाशं गते सति। न केवलं मन:संचारे क्षीणे सति । तुट्टे तह आसवे य दुवियप्पे तथा तेनैव प्रकारेण आस्रबे कर्मास्रवे त्रुटिते सति विलयं गते सति । कीदृशे आस्रवे। दुविकल्पे द्वौ विकल्पौ भेदौ यस्य स द्विविकल्पः तस्मिन् द्विविकल्पे शुभाशुभे द्रव्यभावरूपे वा । मनःप्रसरे क्षीणे सति कर्मास्रवे च निवर्तिते सति भवभवार्जितं कर्म विगलति केवलज्ञानं चाविर्भवतीति समुच्चयार्थः। तथाहि-यो ध्याता अनंतज्ञानादिचतुष्टयलक्षणकार्यसमयसारस्योत्पादकेन विशुद्धतरसमाधिपरिणामपरिणतकारणसमयसारेणांत: 'करणमत नयति स कर्मास्रवशत्रून् हत्वा केवलज्ञानविभूतिभाग्भवति निःसंशयमिति ॥७३॥ यदि काक्षित्राभिः सस्तदा मनः शून्न विधिहोति शिक्षा प्रयच्छन्त्राह जइ इच्छहि कम्मखयं सुण्णं धारेहि णियमणो झत्ति। सुण्णीकयम्मि चित्ते णणं अप्पा पयासेड़ ।।७४॥ यदीच्छसि कर्मक्षयं शून्यं धारय निजमनो झटिति। शून्यीकृते चित्ते नूनमात्मा प्रकाशयति ।।७४ ।। शुभ और अशुभ के भेद से, द्रव्य और भाव के भेद से कर्म-आस्रव दो प्रकार का है। जिस समय मन का प्रचार-प्रसार-संचार वा चंचलता नष्ट हो चुकती है, मन का निरोध हो जाता है, तब शुभ-अशुभ विकल्प वाले दोनों प्रकार के कर्मों का आगमन रुक जाता है, (कर्मों का संवर हो जाता है)। तथा आसव के रुक जाने पर मन, वचन, काय के द्वारा अनेक भवों में उपार्जित कर्म एक क्षण (अन्तर्मुहूर्त) में नष्ट हो जाते हैं और कर्मों का नाश हो जाने पर केवलज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। अर्थात् मन की चंचत्तता नष्ट हो जाने पर नवीन कर्मोंका आस्रव रुक जाता है, पुरातन कर्मों की निर्जरा होती है और केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। यह इसका समुच्चय अर्थ है। तथाहि - जो ध्याता भव्यात्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य इन अनन्त चतुष्टय लक्षण कार्य समयसार के उत्पादक विशुद्धतर समाधि परिणाम से परिणत कारण समयसार के द्वारा अपने अंत:करण (मन) को अंतरंग में लीन करता है, मन को निर्विकल्प करता है, वह कर्मशत्रुओं का संहार (घात) करके केवलज्ञान रूपी विभूति का भोक्ता बन जाता है। इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है ||७३ ।। "हे क्षपक ! यदि तुम्हें कर्मों का क्षय करना इष्ट है तो मनको निर्विकल्प करने का प्रयत्न करो", ऐसी शिक्षा देते हए आचार्य कहते हैं हे क्षपक ! यदि तुम कर्मों का क्षय करना चाहते हो तो शीघ्र ही स्वकीय मन को निर्विकल्प करो। क्योंकि मन के निर्विकल्प हो जाने पर निश्चय से आत्मा प्रकाशित होती है ॥७४॥

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