Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार-१५१
मणवच्छो मनोवृक्ष मनोरूपता नियत छिन्नविस्तारं कुरुत रागद्वेषद्वितया शाखे शाखाशब्दे द्विवचनं अहलं अफलं करेह कुरुध्वं । यथा स मनोवृक्षो न फलति । पुनरपि रागद्वेषवशात् संकल्पविकल्पेषु न प्रवर्तते तथा कुरुत । पच्छा पश्चात् घुनः मोहसलिलेन ममेदमस्याहमिति विभ्रमो मोहः मोहरूपजलेन मा सिंचह मा सिंचतु मनोवृक्षमूले मा मोहरूपं जलं ददत इत्यर्थः॥६८ ।।
एवं मनोवृक्षमुत्पाटनाय शिष्यमुपदेश्याधुना मनोव्यापारे विनष्टे इंद्रियाणित विषयेषु न यांतीति दर्शयन्नाह
ण8 मणवावारे विसएसु ण जंति इंदिया सव्वे । छिण्णो तरुस्स मूले कत्तो पुण पल्लवा हुंति ।।१९।।
नष्टे मनोव्यापारे विषयेषु न यांति इंद्रियाणि सर्वाणि ।
छिन्ने तरोर्मूले कुतः पुनः पल्लवा भवंति ॥६९।। मणवावारे मनोव्यापारे चित्तस्य संकल्पविकल्पस्वरूपे व्यापारे नष्टे विनष्टे सति सव्वे सर्वाणि समस्तानि इंदिया इंद्रियाणि हृषीकानि विसाएसु विषयेषु गोचरेषु ण जंति न याति न गच्छति। अत्रैवार्थे अर्थान्तरन्यासमाह । तरुस्स मूले तरोर्मूले वृक्षस्य जटाकंदादिविशेषे छिण्णे छिन्ने नि:संतानीकृते कत्तो पुणु
आचार्यदेव ने मन को वृक्ष की, रागद्वेष को शाखा की और संकल्प-विकल्प को फल की उपमा दी है। अत: आचार्यदेव कहते हैं हे क्षपक ! मन रूपी वृक्ष के विस्तार का निर्मूलन करो, राग-द्वेष रूपी शाखा को उखाड़ दो जिससे यह मन रूपी वृक्ष संकल्प-विकल्प रूप फल से रहित हो जावे अर्थात् इस मन में संकल्प-विकल्प न उठे, यह मन निर्विकल्प बन जावे। पुनः इसे 'यह मेरा हैं इस प्रकार का विभ्रम मोह है। उसे मोहरूपी जल से मत सींची - क्योंकि जैसे जल के सींचने पर सूखा हुआ वृक्ष भी पुन: अंकुरित
और शाखा और फल वाला बन जाता है; उसी प्रकार हे क्षपक ! यदि तू इसको मोह रूपी जल से सींचता रहेगा तो ग्यारहवें गुणस्थान में निर्विकल्प हुआ मन रूपी वृक्ष पुन: रागद्वेष रूपी शाखा से लुब्ध हो संकल्पबिकल्प रूप फल से फलित हो जायेगा ॥६८॥
इस प्रकार शिष्य को मन रूपी वृक्ष के उखाड़ने का उपदेश देकर अब "मनोव्यापार के नष्ट हो जाने पर इन्द्रियाँ विषयों में प्रवृत्ति नहीं करती हैं," ऐसा दिखाते हुए आचार्य कहते हैं
मन का व्यापार नष्ट हो जाने पर सारी इन्द्रियाँ स्वकीय-स्वकीय विषयों में नहीं जाती हैं। (अपने विषयों से विरक्त हो जाती हैं) क्योंकि वृक्षमूल के कट जाने पर पत्ते कैसे रह सकते हैं ॥६९॥
संकल्प-विकल्प रूप चित्त का व्यापार मनोव्यापार कहलाता है। उस मनोव्यापार के नष्ट हो जाने पर पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्ति नहीं करती हैं, स्वकीय विषयों में नहीं जाती हैं। इसी अर्थ को अर्थान्तरन्यास वा दृष्टान्त के द्वारा कहते हैं। वृक्ष की मूल के नष्ट हो जाने पर (वृक्ष की जड़ को काट