Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार- ९४२
विजृंभते । अत्र तत्त्वत्र - विचारचतुरचेतसां चेतोनिकेतने कथं नाम संशयबिलेशयो विलसति न क्वापि । अतः इंद्रियाणि निगृहीतुमना मनसि प्रथमं मनः संयमनं तनोतु इति तात्पर्यार्थः ॥ ५८ ॥
इंद्रियाणि मनः प्रेरितानि प्रसरतीति व्याख्यायेदानीं मनोनरेंद्रस्य सामर्थ्यं यथा तथा दर्शयति
मणणरवइ सहभुंजड़ अमरासुरखगणरिंदसंजुत्तं । णिमिसेणेक्त्रेण जयं तस्सत्थि ण पडिभडो कोइ ॥ ५९ ॥
मनोनरपति: संभुंक्ते अमरासुरखगनरेंद्रसंयुक्तं ।
निमिषेणैकेन जगत्तस्यास्ति न प्रतिभटः कोपि ॥ ५९ ॥
मणणरवइ मनोनरपतिः मनो मानसं तदेव नरपति: राजा कर्ता अमरासुरखगणरिंदसंजुतं अमरासुरखगनरेंद्रसंयुक्तं अमराः कल्पवासिनः असुरा दैत्याः खगा विद्याधरा नरेंद्राश्चक्रवर्त्यादय: । अत्र सर्वत्र द्वंद्वसमास: अमरासुरखगनरेंद्रैः संयुक्तं जयं जगत् त्रैलोक्यं णिमिसेणेकेण निमिषेनैकेन संभुक्ते एकक्षणमात्रेण स्वभोगयोग्यं करोतीत्यर्थः । तस्स तस्य मनसः कोड़ कांपि तेषामनरासुरनरेंद्राणा मध्ये एकतमापि पडिभडो प्रतिभटः प्रतिमल्लो न विद्यते इत्यर्थः । तथा चोक्तं ज्ञानार्णवे शुभचंद्राचार्य:
नहीं है; उसी प्रकार इन्द्रियों के नायक मन के द्वारा प्रेरित हुई इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्ति करती हैं, मन रूपी नायक के बिना इन्द्रियाँ कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं। इसलिए हे क्षपक ! तू अपने मन को तत्वचिंतन में स्थिर कर, क्योंकि तत्त्वविचार में चतुर चित्त वाले के चित्त रूपी घर में संशय रूपी सर्पका निवास नहीं रह सकता। इसलिए हे क्षपक ! इन्द्रियों का निग्रह करने के लिए सर्वप्रथम मन का संयमन करो। तत्त्वज्ञान के चिन्तन से अपने मन को वश में करो। जिसका मन वश में नहीं है, वह इन्द्रियों को वश में नहीं कर सकता । इन्द्रियों को वश में किये बिना आत्मकल्याण नहीं हो सकता ॥ ५८ ॥
अब मन की प्रेरणा से प्रेरित होकर अपने विषयों में प्रवृत्ति करने वाली इन्द्रियों की व्याख्या कर के मनरूपी राजा की सामर्थ्य दिखाते हैं
यह मन रूपी राजा एक निमेष मात्र काल में अमर, असुर, विद्याधर और राजाओं से संयुक्त सुखों को भोगता है, अतः उस मन के समान इस जगत् में दूसरा कोई प्रतिभट नहीं है ॥५९॥
संसारी पदार्थों का भोक्ता मन रूपी राजा, कल्पवासी देवों, भवनवासी असुरों, विद्याधर, नरेन्द्र, चक्रवर्ती आदि के सर्वभोगों को एक क्षण मात्र में अपने भोग का विषय बना लेता है। मानसिक विचारों के द्वारा पदार्थ के नहीं होते हुए भी उनका उपभोग करता है। उनमें मग्न हो जाता है। इसलिए इस संसार में देव, विद्याधर आदि के मध्य में मन के बराबर कोई दूसरा प्रतिमल्ल नहीं है। सो ही ज्ञानार्णव में शुभचन्द्राचार्य ने कहा है