Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - ७९
स्पर्शनादिलक्षणैरिद्रियैर्नि इंद्रियसंज्ञा कल्पितः अन्यथा मंदाश्च ते कषायाश्चेति कर्मधारय समासे कृते मत्यर्थीयसमासो न घटते "न कर्मधारयान्मत्वर्थीय" इति निषेधसूत्रदर्शनात्। तस्मात्कषायाणां तीव्रोदयाभावादनंतानुबंधिचतुष्टयस्य क्षयात् क्षयोपशमाद्वा मंदकषायत्वं संकेतितं । मंदकषायो अस्यास्तीति मंदकषायी । अथवा मंदाः कषाया यस्मिन् कर्मणि तत् मंदकषायं तदस्यास्तीति । य एव कषायान् मंदान् करोति स एव इंद्रियाणामुपरि हतमोहो भवति । एवं ज्ञात्वा कषायान् जित्वा शरीरेंद्रियविषयेषु हतमोहो भूत्वा परमात्मानमा राधयेत्यर्थः || ३४ ||
I
ननु अजितकषायस्य बाह्ययोगेनैव शरीरस्यापि संन्यासं कुर्वाणस्य मुनेः या सल्लेखना सा किं विफला खेति वदंतं प्रत्याह
सल्लेहणा सरीरे बाहिरजोएहि जा कया मुशिणा ।
सयलावि सा णिरत्था जाम कसाए ण सल्लिहदि ॥ ३५ ॥
सल्लेखना शरीरे बाह्ययोगे: या कृता मुनिना ।
सकलापि सा निरर्थी यावत्कषायान्न सल्लिखति ॥ ३५ ॥
भवतीत्यध्याहार्य व्याख्यायते । भवति । कासौ । सा सल्लेहणा सा सल्लेखना । किं भवति । णिरत्था निर्गतः सकलक्षमोक्ष लक्षणोर्थः प्रयोजनो यस्याः सा निरर्धा निष्फला । कथंभूतापि । सयलावि सकलापि समस्तापि सेति का । था । का या या कृता । केन । मुणिणा मुनिना महात्मना । कैः कारणभूतैः ।
इस गाथा में जो मन्द कषायी शब्द है उसमें कर्मधारय समास नहीं होता है, अतः यहाँ पर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चार कषायों के क्षय और क्षयोपशम से होने वाले परिणाम को मन्दकषायी कहा है। जो मंदकषायी होता है वही भव्यात्मा शरीर और इन्द्रिय-विषयों के प्रति हतमोह होता है; इन्द्रिय-विषयों का त्याग कर सकता है। ऐसा जानकर कषायों को जीतकर और शरीर और इन्द्रिय विषयों में हतमोह होकर परमात्मा की आराधना करो। हे क्षपक ! शरीर का ममत्व और इन्द्रिय-विषयों की अभिलाषा कषाय- सल्लेखना की घातक हैं ॥ ३४ ॥
जिन्होंने कषायों को नहीं जीता है अर्थात् जो कषायों के आधीन है, परन्तु इन्द्रिय-विषयों का परित्याग करके सल्लेखना करता है, तो क्या उसको कुछ भी फल नहीं मिलता, ऐसा कहने वालों के प्रति आचार्य कहते हैं
जब तक कषायें स्खलित (मन्द ) नहीं होती हैं तब तक मुनि के द्वारा बाह्य योग से की गई सारी शरीर - सल्लेखना विफल है, व्यर्थ है | || ३५ ॥
इस गाथा में 'भवति' क्रिया का अध्याहार किया गया है।
सम्पूर्ण कर्म-धर्म से उत्पन्न संसार - संताप के विनाश में कारणभूत, समता भाव में स्थित शुद्धपरमात्मा में संलीनता लक्षण मनोयोग है, उस मनोयोग से विलक्षण (मानसिक परिणति का आत्मस्वभाव में लीन होना) शीत, उष्ण वायु का सहना, सूर्य की तरफ मुख करके बैठना, अनेक प्रकार