Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 133
________________ आराथनासार-९८ स्वकीयशुद्धपरमात्मनः स्वभावः परमानंदमयः स एव जलं पानीयं सहजशुद्धचैतन्यनिर्विकारमात्मस्वरूपमेघजन्यत्वात् तेन प्रसिक्तः अभिषिक्तः किं करोति। अवियप्पो अविकल्पो भूत्वा णिव्याणं निर्वाणं परमाह्लादलक्षणं लभते प्राप्नोति । यथा कश्चन दावाग्मिना दह्यमान: सन् सरोवरे प्रविशति तत्र जलेन प्रसेव्यमानः शैत्यं प्राप्नोति तथासौ परीषहदावाग्निना दह्यमानो ज्ञानसरोवरमवगाह्म निर्वाणं प्राप्नोतीति तात्पर्य ।।४६ ।। एतेन परीषहजय व्याख्यायाधुमा क्रमायातमुपस सहनमितीदं पंचमस्थल षड्भिः गाथाभिः प्रथयति । तत्र यदि कथमपि मुनेर्दुःखजनका उपसर्गा भवंति तदा तेन ते किं कर्तव्याः भवतीत्याह जड़ हुंति कहवि जइणो उवसग्गा बहुविहा हु दुहजणया। ते सहियव्वा Yणं समभावणणाणचित्तेण ॥४७॥ ___ यदि भवंति कथमपि यतेरुपसर्गा बहुविधा खलु दुःखजनकाः। ___ ते सोढव्या नूनं समभावनाज्ञानचित्तेन ॥४७॥ जइणो यत्तेर्मुनीश्वरस्य कहवि कथमपि पुरा दुरर्जितकर्मोदयेन बहुविहा बहुविधा: सचेतनाचेतनप्रभवाः दुहजणया दुःखजनका दुःखोत्पादका उवसग्गा उपसर्गा उपद्रवलक्षणा जइ हुंति यदि भवंति हु खलु। ते उपसर्गाः। किं कर्तव्याः। सोढव्वा सोढव्या नूनं अंगीकर्तव्या; । केन । मुनिना। किं परमानन्दमय, स्वकीय शुद्ध परमात्म स्वभाव रूप जल से अभिषिक्त (सिंचित) होने से निर्विकल्प समाधि में लीन हो जाता है- स्वकीय स्वभाव में स्थिर हो परम शांति का अनुभव करता है और सम्पूर्ण कर्मराशि का नाश कर परम आह्लाद (आनन्द) मय निर्वाण पद को प्राप्त करता है। जैसे दावाग्नि से संतप्त कोई प्राणी सरोवर में प्रवेश करता है और उस में शीतल जल से अभिषिक्त होने से शीतलता (दावानल के दाह-शांति) का अनुभव करता है, वैसे ही परीषह रूपी दावानल से संतप्त हुआ कोई भव्य प्राणी, निज स्वभाव रूप ज्ञान सरोवर में प्रवेश करता है, तो निजात्मानुभव रूप जल से सिंचित होने से परम शांति का अनुभव करता है और परम निर्वाण को प्राप्त करता है। इसलिए हे क्षपक! परीषह से उत्पन्न दुःख दावानल को शांत करने के लिए निज स्वभाव के चिन्तनरूप ज्ञान-सरोवर में प्रवेश करो॥४६॥ इस प्रकार परीषह-जय का व्याख्यान करके अब उपसर्ग सहन करने के लिए सम्बोधित करते हुए आचार्यदेव छह गाथाओं के द्वारा पंचम स्थल को कहते हैं हे क्षपक ! यदि मुनिराज को किसी प्रकार से बहुविध दुःखों के जनक उपसर्ग आते हैं तो समभावना से युक्त चित्त से उन्हें सहन करना चाहिए॥४७॥ किसी भी प्रकार से बहुत प्रकार के दु:खजनक उपसर्ग आते हैं तो मुनिराजों को समभावना ज्ञान , चित्तके द्वारा उन उपसर्गों को सहन करना चाहिए।

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