Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार-१०१
वायुभूतिर्मुनींद्र न नमति केवलं जुगुप्सते। पुनरनिभूतिः प्राह। रे त्वमनेन पाठित: एतादृशं महिमानं च प्रापितस्तत्किमेनं न नौषि । यदुक्तं
अक्षरस्यापि चैकस्य पदार्थस्य पदस्य च ।
दातारं विस्मरन् पापी किं पुनर्धर्मदेशिनम्॥ मरुद्भूति: ब्रूतेस्म। अनेन दुरात्मनाहं भूमौ शायित: भिक्षान्नेन भोजितः अत्यर्थं क्लेशित: तदेनं वचनेनापि न संभावयामि किं पुनर्नमस्कारेण इति ब्रुवाणो दोषानेव गृह्णाति । यदुक्तं
गुणानगृह्णान् सुजनो न निवृतिं प्रयाति दोषानवदन्न दुर्जनः। चिरंतनाभ्यासनिबंधनेरिता गुणेषु दोषेषु च जायते मतिः।।
आहार देते समय श्रावक के सात गुण होते हैं। श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अलोभता, क्षमा और त्याग। गुणधारी अग्निभूति के द्वारा दिये हुए आहार को मुनिराज ने ग्रहण किया।
आहारदान के आनन्द के अनुभव से गद्गद हुए अग्रिभूति ने आहार के पश्चात् धर्मोपदेश के लिए मुनिराज को विनयपूर्वक आँगन में उच्चासन पर बिठाया। सर्व द्विजपुत्रों ने भक्तिपूर्वक मुनिराज के चरण कमलों की वन्दना की। परन्तु मरुभूति ने मुनिराज को नमस्कार नहीं किया। अग्निभूति ने मरुभूति को समझाया परन्तु मरुभूति नमस्कार न करके प्रत्युत् निन्दा करने लगा।
अग्निभूति ने कहा, "रे नीच मरुभूति ! तुम को इन्होंने पढ़ाया, इस महान् पद पर स्थापित किया। अर्थात् इनके प्रसाद से तूने ज्ञानी होकर मंत्री पद प्राप्त किया है। उनको तू नमस्कार नहीं करता? तेरे समान कोई पापी नहीं है।" कहा भी है
"जो एक अक्षर, एक पद, एक पदार्थ के ज्ञान-दाता को भूल जाता है, उसका सत्कार नहीं करता वह पापी है, परन्तु जो धर्मदेशना देने वाले को भूल जाता है उसके पाप का तो कहना ही क्या? वह तो महा पापी है।"
___ अग्निभूति के समझाने पर क्रोधित होकर मरुभूति ने कहा, "इस दुरात्मा ने मुझे भूमि पर शयन कराया, भिक्षा माँगकर उदरपूर्ति कराई अर्थात् भिक्षावृत्ति से भोजन कराया और अति क्लेश (दुःख) दिया। इसलिए इस दुरात्मा के साथ बोलना भी नहीं चाहता, इसका मुख देखना भी पाप समझता हूँ, नमस्कार करना तो बहुत दूर है अर्थात् नमस्कार करना तो संभव ही नहीं है।" सत्य ही है- दुर्जन दोषों को ही ग्रहण करते हैं। कहा भी है
"सज्जन पुरुष गुणों को ग्रहण किये बिना संतोष को प्राप्त नहीं होते और दुर्जन दोषों का कथन एवं ग्रहण किये बिना संतोष को प्राप्त नहीं होते। क्योंकि चिरंतन अभ्यास से प्रेरित हुई बुद्धि गुण और दोषों में प्रवृत्त होती है। अर्थात् गुण और दोषों को ग्रहण करने वाली बुद्धि का भी अनादिकालीन संस्कार है।"