Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 162
________________ आराधनासार-१२७ के बाह्य उद्यान में आकर उपस्थित हुए। मुनिसंघ के शुभागमन का संवाद सुनकर नगरनिवासी उत्साह के साथ वन्दना करने के लिए जाने लगे। ____ मुनिराज के आगमन की सूचना सुनकर क्रोधित होकर मंत्रियों ने प्रतिशोध लेने का निर्णय किया । एक मंत्री ने कहा - "बन्धु! यही अवसर है, अब हम राजा से अपनी अभिलाषा प्रकट करें। देखो, अभी तक अपमान की ज्वाला से मेरा हृदय धधक रहा है, मित्रो! इन दुष्ट साधुओं के कारण हमें राज्य से निष्कासित होकर भटकना पड़ा था, हमारी बड़ी दुर्दशा हुई थी। हमें गर्दभ पर चढ़ाकर देश-निर्वासन का दण्ड इन्हीं के कारण दिया गया था। आज तक इन्हीं दुष्टों के कारण हम अपमानित जीवन व्यतीत कर रहे हैं, अत: ऐसे अवसर को अपने हाथों से नहीं जाने देना चाहिए।' दूसरे मंत्री ने उसके कथन का समर्थन किया और प्रतिशोध लेने की भावना प्रकट की। तीसरे मंत्री ने कहा- "राजा तो इनका भक्त है, वह कैसे इनकी दुर्दशा होने देगा? अत: कोई ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे हम इनका प्रतिशोध करके अपमान का बदला ले सकें।" इतने में प्रसन्नचित्त होकर बलि नामक मंत्री ने कहा- “तुम लोग व्यर्थ चिंता में पड़े हो। सिंहबल को बन्दी बना कर राजा के आधीन किया था, उस समय राजा ने हमें पुरस्कार देने का वचन दिया था- आज वह सुअवसर आया है। पुरस्कार में राजा से सप्त दिवसीय राज्य लेकर इन दुष्टों के प्राणों का संहार कर प्रतिशोध लेना चाहिए।" बलि के कथन का तीनों मंत्रियों ने समर्थन किया और राजा के समीप जाकर सात दिन के लिए राज्य देने की याचना की। राजा वचनबद्ध थे और उन्हें यह कल्पना भी नहीं थी कि मंत्री इसका दुरुपयोग कर करुणा-सागर मुनिराजों के प्राणों का संहार करेंगे। उन्होंने उनको सप्त दिवस के लिए राज्य दे दिया। कपटी मंत्री-चतुष्टय ने राज्य-शासन का सूत्र अपने हाथ में आया हुआ देखकर मुनिराजों के प्राण हरने के लिए यज्ञ करने का उपक्रम किया, जिससे किसी के मनमें अनिष्ट की आशंका न हो। दुष्ट मंत्रियों ने मुनिसंघ को यज्ञ मण्डप के मध्य स्थापित कर उनके चारों तरफ ईंधन एकत्र किया और वेद की ऋचाओं का उच्चारण करते हुए यज्ञ प्रारम्भ किया। उसमें हजारों निरपराध पशुओं की आहुति दी जाने लगी। देखते-देखते दुर्गन्ध के मारे वहाँ ठहरना असंभव हो गया। दुर्गन्धित धुंए से व्योम मण्डल इस प्रकार व्याप्त हो गया, मानों इस महापाप को न देख सकने के कारण ही सूर्य अस्त हो गया हो। इस विषम परिस्थिति में सर्व मुनिराज (सात सौ मुनिराज) नियम सल्लेखना धारण कर मेरु के समान अचल रहकर ध्यानमग्न हो जिनेन्द्रदेव के गुणों का और शुद्धात्मा का ध्यान करने लगे। सत्य है

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