Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 171
________________ आराधनासार - १३६ सर्वं त्यागं कृत्वा गृहीतसंन्यासे सति यदि विषयानभिलषसि तदा दर्शनं ज्ञानं तपः सर्वमफलं करोषि । तथाहि-भो क्षपक ! पूर्वं तावत्त्वं संसारस्वरूपमनित्यं नित्यं मोक्षस्वरूपं निश्चित्य चेतसि सार्वभौमसाम्राज्यराज्यलक्ष्मी तृणवदवगण्यस्व सव्वं चायं काऊ सर्वपरिग्रहत्यागमेव कृत्वा। क्च सति । गहियसण्णासे गृहीतश्चासौ संन्यासश्च तस्मिन् सति जइ यदि त्वं पुनरपि विसए अहिलससि विषयानभिलषसि तो तदा दंसण णाणं तवं दर्शनं ज्ञानं तपश्च सव्वं सर्वं अहलं अफलं फलरहितं कुणसि करोषि दर्शनज्ञानतपसा यत्संवरनिर्जरामोक्षस्वरूपं फल विषयाभिलाषे सति तपः कुर्वत्स्वपि तन्न भवतीत्यर्थः । तथा चोक्तम् पठतु सकलशास्त्रं सेवतां सूरिसंघान् दृढयतु च तपश्चाभ्यस्यतु स्फीतयोगम् । चरतु विनयवृत्तिं बुध्यतां विश्वतत्त्वं यदि विषयविलासः सर्वमेतन्न किंचित् ।। एवं ज्ञात्वा विवेकिना धर्म विधीयताने कस्मिन्नपि चापि अभिलाषो न विधेयः समीहितनिधिकत्वात्। तथा चोक्तं स्पृहा मोक्षेपि मोहोत्था तनिषेधाय जायते। अन्यस्मिन् तत्कथं शांता: स्पृहयंति मनीषिणः ।। किंतु शुद्धपरमात्मन्येव भावनाभिलाषो योग्यो भवतीति तात्पर्थम् ।।५४ ।। हे क्षपक ! सार्वभौम साम्राज्य और पुत्र-पौत्रादिक सर्व सांसारिक वैभव का त्याग करके तूने संन्यास ग्रहण किया है। संसार असार है, अनित्य है, मोक्ष अवस्था नित्य है, सारभूत है; ऐसा चित्त में विचार करके तूने वैभव का त्याग किया और संन्यास ग्रहण किया है। यदि तू इस समय किंचित् मात्र भी मन में विषयों की अभिलाषा करेगा तो दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरण रूप तेरी आराधना. सर्व निष्फल हो जायेगी, संवर, निर्जरा और मोक्ष फल को देने में समर्थ नहीं होगी। तपश्चरण करने पर भी यदि विषयाभिलाषा का मार से वपन नहीं करता है तो तुझे स्वात्माधीन मोक्षफल की प्राप्ति नहीं होगी। कहा भी है __ सकल शास्त्रों को पढ़ो, आचार्यसंघ की सेवा करो, तपश्चरण में दृढ़ रहो, आतापन आदि महान् योग का अभ्यास करो, विनयवृत्ति का आचरण करो अर्थात् देवशास्रगुरु का विनय करो और सर्व तत्त्वों का ज्ञान करो, उनको जानो। यदि हृदय में विषयाभिलाषा स्थित है तो ये दर्शन आदि सर्व निष्फल हैं, इनका कछ भी फल प्राप्त नहीं हो सकता। ऐसा जानकर विबेकी मानव को धार्मिक क्रिया को स्वीकार करके सांसारिक वस्तुओं की किंचित भी अभिलाषा नहीं करनी चाहिए। मन को निर्विकल्प कर स्थिर करना चाहिए। कहा भी है आचार्यों ने मोह से उत्पन्न मोक्ष को भी अभिलाषा का निषेध किया है अर्थात् जब तक हृदय में मोक्ष की भी अभिलाषा (इच्छा) रहती है तब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इसलिये शांत (शुद्धात्मा के अनुभव के अभिलाषी मनीषी बुद्धिमान्) लोग अन्य (पंचेन्द्रियों के) पदार्थों की अभिलाषा कैसे कर सकते हैं अर्थात् नहीं करते।। विषयों की अभिलाषा करना योग्य नहीं है अपितु शुद्धात्म भावना की अभिलाषा करना योग्य है, ऐसा समझना चाहिए ॥५४॥

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