Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार २०४
भवति पि सलोन्मूलने मत्तदंती जडमतिभिरनाशे पद्मिनीप्राणनाथः । नयनमपरमेतद्विश्वविश्वप्रकाशे करणहरिणबंधे वागुराज्ञानमेतत् ॥
अधीराः प्रायानपि भवति सर्वेषां गोचर: अलोचनगोचरे ह्यर्थे शास्त्रं पुरुषाणां तृतीय लोचन अनधीतशास्त्र: चक्षुष्मानपि पुमानंध एव इति प्रतिबोधितावपि तौ नाधीयाते प्रत्युत पितरं क्लेशं नयतः । यदुक्तं
प्रायो मूर्खस्य कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् । निर्लूननासिकस्यैव विशुद्धादर्शदर्शनम् ॥
तद्दुष्टचेष्टौ पश्यन् विषयभोगयोगादुत्पन्नरोगो विप्रोऽकांडेपि मृतः । अथ कियत्सु वासरेष्वतीतेषु राज्ञा तौ पुरोहितसुतावाहूय स्मृत्यर्थं पृष्ठौ । देव न जानीवहे इत्युत्तरं चक्रतुः । भूपेन अनध्ययनो ब्राह्मणोऽयाजनो देवानामिति विमृश्य तौ पुरोहितपदान्निराकृतौ । ततः पुरोहितभार्या अत्यर्थः दुःखिता सती उपभूपं गत्वा
सारे वृक्षों को उखाड़ने में समर्थ मदोन्मत्त हाथी जड़मति होने से सूर्य का नाश करने में समर्थ नहीं है । विश्व को प्रकाशित करने में यह ज्ञान ही अपर (अद्वितीय) नेत्र है। यह ज्ञान ही इन्द्रिय रूपी हरिण को बाँधने के लिये नाल है।
“शास्त्रज्ञ, प्रज्ञावान पुरुष सबके गोचर होता है अर्थात् वह सर्वके द्वारा पूजनीय होता है। उस पुरुष को लोचन के अगोचर पदार्थ भी दृष्टिगोचर हो जाते हैं। शास्त्र पुरुषोंका तीसरा लोचन (नेत्र) है। जिसने ज्ञानार्जन नहीं किया है वह पुरुष चक्षुवाला होते हुए भी अंधा ही है।" इस प्रकार पिता द्वारा समझाने पर भी उन दोनों ने विद्या उपार्जन करने में प्रयत्न नहीं किया अपितु क्रोधी होकर माता-पिता को कष्ट देने का प्रयत्न किया । सो ही कहा है
"प्राय: करके मूर्ख को सन्मार्ग का उपदेश देना क्रोध के लिए होता है, जैसेविशुद्ध ( निर्मल) दर्पण दिखाना क्रोध के लिए ही होता है । "
- नाक कटे मनुष्य को
उन दोनों दुष्ट पुत्रों की चेष्टाएँ देखकर तथा विषयभोग के योग से उत्पन्न रोग से राजपुरोहित अकाल ही मरण को प्राप्त हो गया । अर्थात् मानसिक रोग और शारीरिक रोग के कारण वह अकाल में ही मृत्यु
का ग्रास बन गया।
कुछ दिन बीतने के बाद राजा ने राजपुरोहित के दोनों पुत्रों को बुलाकर स्मरण कराते हुए कुछ प्रश्न पूछे। राजपुरोहित के पुत्रों ने कहा- राजन् ! हम कुछ नहीं जानते । राजा ने उन मूर्खो को राजपुरोहित पद के अयोग्य समझ कर पुरोहित पद से च्युत कर दिया और उनकी आजीविका छीन ली। वे दोनों पुरोहितपुत्र अपनी माता के पास गये और राजा के द्वारा किये गए व्यवहार को माता को सुनाया; जिसको सुनकर माता अति दुःखित होकर राजा के समीप आकर कहने लगी- "हे राजन् ! आपने मेरे पुत्रों की आजीविका क्यों छीन ली और उनको पिता का पद क्यों नहीं दिया ?"