Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराथनासार - १०२
इति वैराग्यरंगेन रंगितात्मा स तत्क्षणात्। भोगांस्त्यक्त्वा तुणानीव जैनी दीक्षामश्रियत् ।। अभ्यस्यन् स ततो योगं तपस्यन् दुस्तपं तपः। वन्धदा प्रतिमया तस्थी क्यापि तरोस्सलं ।। तदा ज्वलन्मिथो वंशधर्षणोत्थदवानलः । ज्वलद्दारुस्फुटवंशत्रुटच्छब्दभयंकरः ।। अविशेषतया सर्व ज्वालयन्स दवानलः। अपीडयत मुनिमपि क्व विवेको हाचेतने ॥ तस्थौ तरोस्तले यस्य ज्वलतो वह्निना तनोः। निपेदवद्भिालातैः प्रत्यंग स कदर्थितः॥ एवं दावानलेनोच्चैरालीढोप्येष सर्वतः ।
मनागप्यचलद्ध्यानानारिरद् दृढता सताम् ।। उक्तं च समयसारे
सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमते परं यद्बजेपि पतंत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्तावनि । सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं
जानंत: स्वमबध्यबोधवपुर्ष बोधाच्च्यवन्ते न हि ।। भोग और संसार के वैभव जीर्णतृण के समान हैं, नाशवंत हैं, ऐसा समझकर और शरीर से ममत्व का परिहार कर वे घोर तपश्चरण करने लगे। एक दिन शिवभूति मुनिराज वृक्ष के नीचे प्रतिमा योग से बैठकर आत्मा का चिन्तन कर रहे थे। उसी समय दो बाँसों के परस्पर संघर्षण से भयंकर दावानल उत्पन्न हुई। चारों तरफ से वृक्षों के टूटने से घोर आवाज हो रही थी। पशुओं का चीत्कार मानव-हृदय को विदार रहा था। महाभयंकर राक्षस के समान दावानल ने सारे वरको जलाते हुए मुनिराज को भी अपना ग्रास बना लिया। ठीक ही है, अचेतन को विवेक कहाँ होता है ! वृक्ष के नीचे बैठे हुए मुनिराज के प्रत्येक अंग कर्थित हो रहे थे। लकड़ी के समान सास शरीर जल रहा था। दावानल की ऊँची-ऊँची ज्वाला से मुनिराज का सारा शरीर व्याप्त हो गया था। परन्तु शुद्धात्म ध्यान में लीन मुनिराज अपने ध्यान से च्युत नहीं हुए । ठीक ही है- सज्जन पुरुषों की दृढ़ता अलौकिक होती है।
__ सो ही समयसार कलश में अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है- “सम्यग्दृष्टि महापुरुष ही इस प्रकार का साहस करने में समर्थ होते हैं। भय से चलायमान होकर तीन लोक के प्राणी सन्मार्ग को छोड़ देते हैं, ऐसे वज्रपात के होने पर भी ये महामुनि स्वाभाविक निर्भयता से सारी शंका (भव) को छोड़कर अबध्य (निर्घात) ज्ञानमय शरीर वाले स्व को जानकर निज ज्ञान से च्युत नहीं होते हैं। अर्थात् मैं अखण्ड, अबाध, नित्य, अविनाशी ज्ञानमय शरीर वाला हूँ। मेरा किसी भी कारणों से नाश नहीं हो सकता। ऐसा विचार कर के महामुनि घोरोपसर्ग आने पर भी स्वकीय ज्ञान-ध्यान से कभी च्युत नहीं होते।