Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
View full book text
________________
आराधनासार -१०६
तत्पुरो भूमावुपविष्टौ । सूर्यमित्रोपि तद्युगलमपूर्वमालोक्य विस्मयवांतचेता: अपृच्छत्। कौ युवां कस्मादागतो कस्यात्मजौ किमिह करणीयं चेति । तावूचतुः । कौशाम्ब्या आगतौ सोमशर्मात्मजौ अग्निभूतिमरुद्भूतिनामानौ त्वमाराध्यावां शास्त्राभ्यास चिकीर्षाव:। सूर्यमित्रोपि मदीयज्येष्ठभ्रातृपुत्राविमाविति संबंधं जानन्नपि जुगोप। यदि विद्या जिघृक्षू युवां तदा व्यसनानि त्यजतां यतो व्यसनिनो विद्यासिद्धिर्न भवति ।। यदुक्तं
स्तब्धस्य नश्यति यशो विषमस्य मैत्री नष्टक्रियस्य कुलमर्थपरस्य धर्मः। विद्याफलं व्यसनिनः कृपणस्य सौख्यं
राज्यं प्रणष्टसचिवस्य नराधिपस्य॥ भिक्षाया निजोदरपूरणं गुरुशुश्रूषणं भूमिशयनं च वितन्वतोभवतोः श्रुतावधारणशक्तिः। अथ तच्छिष्यद्वयं स उपाध्याय: सभाष्यं व्याकरणमपीपठत् वेदांश्च सांगानध्यजीग्यपत् प्रमाणशास्त्राण्यबूबुधत्। अथ सुप्रसन्ने गुरौ। शिष्योऽवश्यमचिरेणैव विद्यांबुधिपारदृश्वा भवत्येव ।। यदुक्तंको आश्चर्य के वशीभूत न होकर सम भावों से पूछा, “तुम दोनों कौन हो? कहाँ से आये हो? किसके पुत्र हो? यहाँ पर किस लिए आये हो?।"
उन दोनों ने कहा- "हम दोनों गौशाम्जी नी से आगे हैं। सोमशर्मा नामक राजपुरोहित के पुत्र हैं। हमारा नाम अग्निभूति और मरुभूति है। हम दोनों आपकी आराधना करके शास्त्राभ्यास करना चाहते
सूर्यमित्र ने भी "ये दोनों मेरे भाई के पुत्र है" ऐसे सम्बन्ध को जानते हुए भी अपने सम्बन्ध को प्रगट नहीं किया, छिपाकर रखा क्योंकि यदि इनको अपना सम्बन्ध बता देंगे तो ये विद्या प्राप्त नहीं कर सकेंगे। सूर्यमित्र ने कहा-“यदि तुम दोनों विद्या के इच्छुक हो तो सर्व प्रथम विद्या के घातक सप्त व्यसनों का त्याग करो। क्योंकि व्यसन वाले मानव को विद्या की सिद्धि नहीं होती।" कहा भी है.
"स्तब्ध (आलसी) का यश, मन वचन काय की कुटिलता वाले की मैत्री, क्रियाहीन की कुलपरम्परा, धन के इच्छुक का धर्म, व्यसनी के विद्या का फल, कंजूस का सुख और मंत्रीरहित राजा का राज्य नष्ट हो जाता है।"
“हे शिष्यो! आप दोनों भिक्षा से उदर पूर्ण करो। (भिक्षावृत्ति से भोजन करो)। गुरु की सेवा करो और भूमि पर शयन करो जिससे शीघ्र ही तुम्हारी श्रुतावधारण शक्ति वृद्धिंगत होगी। अर्थात् शीघ्र ही तुम शास्त्र के पारगामी हो जावोगे।"
इस प्रकार उस उपाध्याय ने दोनों शिष्यों के साथ वार्तालाप करके शिष्यों को व्याकरण पढ़ाया। अंग सहित वेदों का अध्ययन कराया और प्रमाणशास्त्र समझाया। वे वेद, व्याकरण आदि शास्त्रों के शीघ्र ही पारगामी हो गये। ठीक ही है, गुरु की प्रसन्नता होने पर शिष्य शीघ्र ही विद्यासमुद्र के पारगामी हो जाते हैं। कहा भी है१. शिकार खेलना, जुआ खेलना, मदिरापान करना, परस्त्रीसेवन, वेश्यासेवन, मांस खाना, चोरी करना ये सात व्यसन हैं।