Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - ८६
युक्तं कदाचित्क्षुदाद्यभावेपि कर्मोदयात्संयमे अरतिरुपजायते || ७ || स्त्रीदर्शनस्पर्शनालापाभिलाषादिनिरुत्सुकस्य तदक्षिवक्त्रभूविकारशृंगाराकाररूपगतिहासलीलाविजूंभितपीन्तेन्नतस्तनजननोरुमूलकक्षानाभिनिरीक्षणादिभिरविकृत चेतसस्त्यक्तवंशगीतादिश्रुतेः स्त्रीपरीषहजयः ।।८।।
देवादिवंदनाद्यर्थ गुरुणानुज्ञातगमनस्य संयमाविधातिमार्गेण गच्छतोऽटन्यादिषु सहायाननपेक्षस्य शर्करादिभिजतिखेदस्यापि पूर्वोचितयानादिकमस्मरतश्चर्यापरीषहजयः ।।९॥ श्मशानादिस्थितस्य संकल्पितवीरासनाद्यन्यतमासनस्य प्रादुर्भूतोपसर्गस्यापि तत्प्रदेशाविचलतोऽकृतमंत्रविद्यादिप्रतीकारस्य अनुभूतमृद्वास्तरणादिकमस्मरतश्वित्तविका-ररहितस्य निषद्यातितिक्षा ।।१०।। स्वाध्यायादिना खेदितस्य विषमादिशीतादिसु भूमिषु निद्रां मौहूर्तिकीमनुभवतः एकपार्थादिशायिनो ज्ञातबाधस्याप्यस्पंदिनो व्यंतरादिभिर्विशस्यमानस्यापि त्यक्तपरिवर्तनपलायनस्य शार्दूलादिसहितोऽयं प्रदेशोऽचिरादतो निर्गमः श्रेयान् कदा रात्र्यं विरमतीत्यकृतविषादस्य मृदुशयनमस्मरतः शयनादप्रच्यवतः शय्यासहनं ॥११॥ परं भस्मसात् कथन और श्रवण से रहित मुनिराज के अरति परीषह-जय होता है। तथा चक्षु आदि के योग्य जितने भी पंचेन्द्रियजन्य विषय हैं वे अरति का कारण होने से उनको पृथक् अरति ग्रहण करना युक्त नहीं है क्योंकि कदाचित् क्षुधा आदि के अभाव में भी कर्मोदय के कारण संयम में अरति उत्पन्न हो सकती है। यहाँ पर पंचेन्द्रिय विषयसुखों की अरति का ग्रहण नहीं है अपितु संयम में अरति उत्पन्न नहीं होना ही अरति परीषहजय है।।७।।
स्त्रियों के भूविलास, नेत्रकटाक्ष, शृंगार, आकार, रूप, गति, हास को; लीला से विजूंभित पीन (स्थूल) स्तन, जंधा, उसमूल, काँख, नाभि आदि के देखने से जिनका चित्त विकृत नहीं है, स्त्रियों को देखना, स्पर्श करना, वार्तालाप करना आदि अभिलाषाओं से जिनका चित्त निरुत्सुक है अर्थात् स्त्रियों को देखने आदि की अभिलाषा जिनके मन में नहीं है, जिनका मन संगीत आदि के सुनने से विरक्त है; जो कछए के समान इन्द्रिय और मन का संयमन करते हैं उनके स्त्रीपरीषह-जय होता है ।।८।।
देवबन्दना, तीर्थयात्रादि के लिए गुरुजनों की आज्ञा से देशकाल के अनुसार गमनागमन करते समय कंकड़, काँटे आदि के द्वारा उत्पन्न बाधा को तत्व के चिन्तन रूप पदत्राण से शांतिपूर्वक सहन करते हैं। स्वकीय स्वभाव से च्युत होकर खेद-खिन्न नहीं होते हैं तथा पूर्व अवस्था में भोगे हुए बाहन आदि का स्मरण नहीं करते हैं, उनके चर्या परीषह-जय होता है ।।९।।
जो मुनि श्मसान, वन, पर्वत, कन्दरा आदि में निवास करते हैं और नियत काल पर्यन्त ध्यान के लिए निषद्या (आसन) को स्वीकार करते हैं, लेकिन देव, तिर्यंच, मनुष्य एवं अचेतन कृत उपसर्ग आने पर भी जो अपने आसन से च्युत नहीं होते हैं, न पूर्व में अनुभूत मृदु आसनादि का स्मरण करते हैं और न मंत्रादिक के द्वारा ही किसी प्रकार के प्रतिकार की इच्छा करते हैं, उनके निषद्या परीषह-जय होता है।।१०।।
मुनिराज ऊँची-नीची कंकड़ बालू आदि से युक्त कठोर भूमि पर एक करवट से लकड़ी या पत्थर के समान निश्चल एक मुहूर्त तक निद्रा का अनुभव करते हैं। पसवाड़े का परिवर्तन नहीं करते हैं, भूत-प्रेतादि-कृत उपसर्ग भी जिनके शरीर को चलायमान नहीं कर सकते तथा जो ऐसा विधार भी नहीं करते कि 'यहाँ भूतप्रेतादि वा सिंहादि हिंसक प्राणी हैं, अतः यहाँ से शीघ्र चल देना चाहिए या यह रात्रि कब समाप्त होगी?" तथा पूर्व में अनुभूत मृदु शय्या का चिन्तन नहीं करते हुए शयन से च्युत नहीं होते। उनके शय्या परीषहजय होती है।।११।।