Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - ८४
परमकोटिमारूढं धम्मं धर्मः स्वस्वरूपस्वभावं प्रतिपद्यते स कषायसंन्यासी मुनिः प्राप्नोति । स्वस्वरूपलाभाय भव्यैः कषायसंन्यासो विधेय इति रहस्यं ॥ ३९ ॥ एवं कषायसल्लेखनानिर्देशस्वरूपकथनप्रपंचेन गाथाषट्कं । गता कषायसल्लेखना । अधुना "सीयाई" इत्यादि गाथासप्तकेन क्रमायातं च चतुर्थस्थलगत परीषहजयं कारयति इति समुदायपातनिका ।
तत्रादौ कति संख्या : परीषहाः किंस्वरूपा निर्दिष्टाः किं ते केन कर्तव्या इत्याहसीयाई वावी परिसहसुहडा हवंति णायव्वा । जेव्वा ते मुणिणा वरवसमणाणखग्गेण ॥ ४० ॥
शीतादयो द्वाविंशति: परीषहसुभटा भवंति ज्ञातव्याः । जेतव्यास्ते मुनिना वरोपशमज्ञानखड्गेन ॥ ४० ॥
सीयाई शीतादय: शीत आदिर्येषां क्षुत्पिपासादीनां ते शीतादयः वावीसं द्वाविंशतिः द्वाविंशतिसंख्योपेताः परिसहसुहडा परीषहसुभटाः परीषहाः क्षुत्पिपासादिलक्षणा त एव सुभटा रणरंगकुशलपुरुषविशेषाः शरीरपराभवकारणसामर्थ्यात् । ते किं कर्तव्या । हवंति भवंति णायव्वा ज्ञातव्याः स्वकीयावगमगोचरीकर्तव्या । कथमितिचेत् । भिक्षोः शुद्धाहारान्वेषिणः तदलाभे ईषल्लाभे च दुस्तरेयं वेदना महांश्च कालो दीर्घाहेति विषादमकुर्वतोऽकाले देशे च भिक्षामगृह्णतः आवश्यकहानिं मनागप्यनिच्छतः स्वाध्यायध्यानरतस्योदीर्णक्षुद्वेदनस्यापि लाभादलाभमधिकं मन्यमानस्य क्षुद्बाधाप्रत्ययचिंतनं क्षुद्विजयः ॥ १ ॥
मुनि परम कोटि को आरूढ़ (उत्तम) स्वस्वभाव रूप धर्म को प्राप्त होता है। अतः मुमुक्षु भव्यों को स्वस्वरूप की प्राप्ति अथवा स्वात्मोपलब्धि के लिए कषायों को कृश करने का प्रयत्न करना चाहिए ॥ ३९ ॥
इस प्रकार कषाय कृश करने का निर्देश करने वाली छह गाथाएँ पूर्ण हुईं। इस समय क्रम से प्राप्त शीतादि बावीस परीषहजय का सात गाथाओं द्वारा कधन करते हैं
ये शीतादि परीषह अति सुभट हैं, ऐसा जानकर मुनिराज को उत्कृष्ट उपशमभाव और ज्ञान रूपी तलवार के द्वारा उनको जीतना चाहिए ॥ ४० ॥
घर,
निर्दोष आहार का अन्वेषण (खोज) करने वाले मुनिराज आहार नहीं मिलने पर, वा अल्प आहार मिलने अकाल और अयोग्य देश में आहार ग्रहण करने की भावना नहीं करते हैं। मनाक् ( थोड़ा सा ) भी स्वकीय षड् आवश्यक क्रिया करने में आलस्य नहीं करते ( षट् आवश्यक क्रियाओं की हानि नहीं करते हैं ।) आहार नहीं मिलने पर - 'अहो ! यह क्षुधा वेदना दुस्तर है, कालदीर्घ है' इस प्रकार विषाद (खेद) नहीं करते हुए स्वाध्याय और ध्यान में लीन होकर, लाभ से भी अलाभ को अधिक मानते हुए क्षुधा पर विजय प्राप्त करते हैं। भूखप्यास से आकुलित होकर स्वकीय क्रियाओं को नहीं छोड़ते हैं। उसको क्षुधापरीषह - विजयी कहते हैं ॥ १ ॥
ये शीत, क्षुतू-पिपासा आदि बावीस परीषह शरीर का पराभव करने में समर्थ होने से वा परीषह रूपी रणांगण में कुशल पुरुष के द्वारा जीतने योग्य होने से ये सुभट हैं, महायोद्धा हैं, कायर वा विषयाभिलाषी पुरुष इन पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते। ऐसे परीषह रूपी भटों को जानना चाहिए, ज्ञानगोचर करना चाहिए।