Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार- ८७
कर्तु
शक्तस्याप्यनिष्टवचनानि
शृण्वत:
परमार्थावहितचेतसः
स्वकर्मणो दोषं
प्रयन्च्छतोऽनिष्टवचनसहनमाक्रोशजयः ॥ १२ ॥ चौरादिभिः क्रुद्धे शस्त्राग्न्यादिभिर्मार्यमाणस्याप्यनुत्पन्नवैरस्य मम पुराकृतकर्मफलमिदमिति इमे वराका किं कुर्वन्ति शरीरमिदं स्वयमेव विनश्वरं दुःखदमतैर्हन्यते न ज्ञानादिकर्म इति भावयतो वधपरीषहक्षमा || १३ || क्षुदध्व- श्रमतपोरोगादिभिः प्रच्यावितवीर्यस्यापि शरीरसंदर्शनमात्रव्यापारस्य प्राणान्त्ययेप्याहारवसतिभेषजादीनभिधानमुखवैवर्ण्यगसंज्ञादिभिरयाचमानस्य याचनसहनं ॥१४॥ एकभोजनस्य मूर्तिमात्रदर्शनपरस्यैकत्र ग्रामे अलब्ध्या ग्रामांतरान्वेषणनिरुत्सुकस्य पाणिपुटपात्रस्य बहुदिवसेषु बहुषु च ग्रहेषु भिक्षामनवाप्यापि असंक्लिष्टचेतसो व्यपगतदातृविशेषपरीक्षस्य लाभादप्यलाभो मे परं तप इति संतुष्टस्य अलाभविजय: ॥ १५ ॥ स्वशरीरमन्यशरीरमिव मन्यमानस्य शरीरयात्राप्रसिद्धये व्रणले पवदाहारमाचरतो जल्लोषधाद्यनेकतपोविशेषर्धियोगेपि शरीरनिस्पृहत्वात्
दूसरों को भस्मसात करने में समर्थ होते हुए भी परमार्थ के चिन्तन में लीन चित्त वाले मुनिराज, स्वकीय कर्मों के फल का विचार करके दुष्ट एवं अज्ञानी जनों के द्वारा कथित असत्य, अनिष्ट वा कठोर वचनों को सुनकर हृदय में रंचमात्र भी कषाय नहीं करते हैं, खेद खिन्न नहीं होते हैं। वे आक्रोश परीषहजयी होते हैं ।। १२ ।।
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क्रुद्ध हुए चौरादि कृत तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रों के प्रहार को सहन करते हैं, प्रहार करने वाले शत्रु पर द्वेष नहीं करते हैं अपितु यह विचार करते हैं कि यह मेरे पूर्व कर्मों का फल है तथा शस्त्रों के द्वारा दुःखों के मूल कारण शरीर का विघात हो सकता है, ज्ञानपुंज अविनाशी आत्मा का विघात त्रिकाल में भी संभव नहीं है, उनके वध परीषहजय होती है ॥ १३ ॥
भूख-प्यास, मार्ग-गमन की थकावट, तपश्चरण, रोग आदि के द्वारा क्षीण शक्ति हो जाने पर भी तथा एक बार भोजन के समय शरीर को दृष्टिगोचर कराना ही जिनका व्यापार है ऐसे मुनिराज कितना ही कष्ट आने पर वा प्राण निकलते भी दीन वचन, मुख-वैवर्ण्य, अंगसंज्ञा ( इशारा ) आदि के द्वारा भोजन, वसतिका, औषध आदि की याचना नहीं करते हैं; वे याचना परीषह विजयी होते हैं ॥ १४ ॥
जो दिन में एक बार भोजन करते हैं, भिक्षा के लिए जाने पर केवल श्रावक को अपना शरीर मात्र दिखाते हैं (शीघ्र ही आगे चले जाते हैं), बहुत काल तक श्रावक के घर के सामने खड़े नहीं रहते हैं। एक ग्राम में आहार नहीं मिलने पर आहार के लिये ग्रामान्तर में जाने की इच्छा नहीं करते हैं तथा हाथ ही जिनके पात्र हैं; दाता धनाढ्य है या दरिद्री है, इसकी अपेक्षा नहीं करते हैं। अनेक दिनों तक वा अनेक घरों में भ्रमण करने पर भी यदि आहार का लाभ नहीं होता है तो स्वकीय मन में किसी प्रकार का खेद नहीं करते हैं और भिक्षा के लाभ की अपेक्षा अलाभ को तप का हेतु समझकर संतुष्ट होते हैं, आनन्द का अनुभव करते हैं, वे अलाभ परीषह विजयी कहलाते हैं ॥ १५ ॥
जो महात्मा स्व शरीर को अन्य के शरीर के समान समझते हैं। शरीर - यात्रा ( शरीर की स्थिति ) की प्रसिद्धि के लिए व्रण (घाव ) पर लेप के समान आहार लेते हैं, आसक्तिपूर्वक नहीं और शरीर से अत्यन्त