Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
View full book text
________________
आराधनासार-६८
जा उजमो ण वियलइ संजमतवणाणझाणजीएसु। तावरिहो सो पुरिसो उत्तमठाणस्स संभवई ।।२८ ॥ कलावयं ।
जराव्याघ्री न चंपते यावन्न विकलानि भवंति अक्षाणि। बुद्धिर्यावन्न नश्यति आयुर्जलं यावन्न परिगलति ॥२५॥ आहारासननिद्राविजयो यावदस्ति आत्मनो नूनम् । आत्मानमात्मना च तरति च निर्यापको यावत्॥२६॥ यावत् न शिथिलायंते अंगोपांगानि संधिबंधाश्च । यावन्न देहः कंपते मृत्योर्भयेन भीत इव ॥२७॥ यावदुद्यमो न विगलति संयमतपोज्ञानध्यानयोगेषु ।
तावदर्हः स पुरुष उत्तमस्थानस्य संभवति ।।२८ ॥ कलापकं । संहवइ संभवति संपद्यते। कोसौ। स पूर्वोक्तलक्षण: पुरिसो पुरुषः। कथंभूतः। अरिहो अर्हः। कस्य । उत्तमस्थानस्य बाह्याभ्यंतरसंगसंन्यासलक्षणविशेषस्य । कथं ता तावत् । तावदिति कियत्कालं! जाव यावत् यावत्काले ण चंपेड़ न चंपते नाक्रमति । कासौ । जरवग्विणी यौवनद्विपदर्पदलनत्वात् जराव्याघ्री। न केवलं जराव्याघ्री यावन्नाक्रामति। जाम ण हुंति यावत् च न भवंति कानि। अक्खाई अक्षाणि स्पर्शरसगंधवर्णशब्दग्रहणदक्षाणि इंद्रियाणि। किंविशिष्टानि यावच्च न भवंति। वियलाई विकलानि स्वकीयस्वकीयविषयसौष्ठवास्पष्टकारीणि । न केवलं विकलानींद्रियाणि यावन्न भवंति जाम यावच्च ण है, जब तक अंगोपांग और शरीर की सन्धियाँ शिथिल नहीं हुई हैं, जिसका शरीर मृत्यु के भय से कम्पित नहीं हो रहा है जब तक संयम, तप, ज्ञान, ध्यान योग में उद्यम नष्ट नहीं हुआ है। ऐसा पुरुष ही उत्तम स्थान (संन्यास) के योग्य होता है अर्थात् बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहत्याग लक्षण वाला ही संन्यास धारण करने योग्य होता है ।।२५-२६-२७-२८॥
यौवन रूपी हाथी के मद का मर्दन करने वाली होने से जरा (बुढ़ापा) को व्याघ्री कहा है। जब तक बुढ़ापे ने आक्रमण नहीं किया है, जब तक इन्द्रियाँ विकल नहीं हुई हैं- अर्थात् स्पर्श, रस, गंध, वर्ण शब्द रूप अपने-अपने विषय को ग्रहण करने में समर्थ हैं, जब तक बुद्धि नष्ट नहीं हुई है अर्थात् अवस्था विशेष से इन्द्रियों और मन के विकल हो जाने से हेयोपादेय पदार्थ के परिज्ञान से शून्य हो अपने स्वरूप को छोड़कर विपर्यय रूप को ग्रहण करती है वा विपरीत अर्थ को ग्रहण कर अदृश्य हो जाती है, वह बुद्धि का विनाश कहलाता है। अर्थात् जब तक बुद्धि विकल नहीं हुई है, स्मृति नष्ट नहीं हुई है, हेयोपादेय के ज्ञान से शून्य नहीं हुई है, जब तक आयु रूपी जल (स्वकीय आयुनिषेक फल देकर) नष्ट नहीं हुआ है, अर्थात् आयु रूपी जल समाप्त नहीं हुआ है।