Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार- ६९
पास न नश्यति । कासौ । बुद्धिः नश्यतीति कोर्थः । अवस्थाविशेषेण सा इंद्रियमनोविकलतया हेयोपादेयपदार्थ परिज्ञानशून्यत्वेनात्मीयं स्वरूपं मुक्त्वा विपर्यस्तरूपमादाय अदृश्या भवति । न केवलं यावद्बुद्धिर्न नश्यति । जाम यावच्च ण परिगलइ न परिगलति । किं तत् । आउजलं आयुर्जल निजोपार्जितकर्मबंधसामर्थ्येन संवत्सरायनर्तुमासपक्ष- दिवसघटिकादिविशेषैर्यावत्परिमाणं भवस्थित्या एकस्मिन् देहे प्राणधारण - लक्षणमायुरिति आयुरूप जलं आयुर्जलं । जलत्वेनायुर्निर्देशस्य किं प्रयोजनं । यथा सच्छिद्रकरांजलौ प्रक्षिप्तं जलं समयादिसहकारित्वेन सकलं परिगलति तथा आयुरपि समयघटिकादिवत् पक्षमासादिभिः कृत्वा समस्तं परिगलति । इत्यत्र तात्पर्यं । न केवलं आयुर्जलं यावन्न परिगलति । जावत्थि यावदस्ति च । कोसौ । आहारासणणिद्दाविजओ आहारासननिद्रा-विजयः आहारश्च आसनं च निद्रा च आहारासननिद्रास्तासामाहारासन - निद्राणां विजयः आहारासननिद्राविजयः । आहारासननिद्राणां किं लक्षणं इति चेत् । निर्विकारपरमाह्लादकारि सहजस्वभावसमुद्भवसर्वकालसंतर्पण हेतुभूतस्वसंवेदनज्ञानानंदाभृतरसप्राग्भारनिर्भरपरमाहारविलक्षणो निजोपार्जितासद्वेदनीयकर्मोदयेन तीव्रबुभुक्षावशाद्व्यवहारनयाधीनेनात्मना यदशनपानादिकभाद्रियते तदाहारः । निश्चयेनात्मन: अनन्येवस्थानं यत् तदासनमित्युच्यते । लोकव्यवहारेण तदवस्थानसाधनांगत्वेन यमनियमाद्यष्टांगेषु मध्ये शरीरालस्यग्लानिहानाय नानाविधतपश्चरण भारनिर्वाहक्षमं भवितुं तत्पाटबोत्पादनाय यन्निर्दिष्ट पर्यंकापर्यंकवीरवज्रस्वस्तिकपद्यकादिलक्षणमासनमित्युच्यते । एतेषां प्रत्येकं लक्षणमाह
निज उपार्जित कर्मबन्ध के सामर्थ्य से संवत्सर' अयन ऋतु मास पक्ष' दिवस' और घटिका आदि विशेषों के द्वारा भवस्थिति से एक देह में प्राण धारण करना एक शरीर में रहना आयु है।
आयु को जल क्यों कहा है? जिस प्रकार छिद्र सहित हाथ में रखा हुआ जल समय (काल) की सहायता से नष्ट हो जाता है, नीचे गिर जाता है उसी प्रकार आयु भी समय, घटिका, मासादि के द्वारा प्रतिक्षण नष्ट होकर पूर्ण नष्ट हो जाती है। अत: जब तक आयु पूर्णतया नष्ट नहीं हुई है, तब तक इस मानव में आहार, आसन और निद्रा पर विजय प्राप्त करने का सामर्थ्य है।
शुद्ध निश्चय नय से निर्विकार परम आह्लाद (आनन्द) कारी सहज स्वभाव से समुद्भूत, सर्व काल में संतृप्ति के कारणभूत स्वसंवेदन ज्ञान के आनन्द रूपी अमृत रस का आस्वादन है, वही परम निर्भर आहार है क्योंकि वहीं आत्मा को पुष्ट करने वाला है।
शुद्धात्मा के आस्वादन रूप आहार से विलक्षण, व्यवहार नय से स्वकीय भावों से उपार्जित असाता वेदनीय कर्म के उदय से उत्पन्न तीव्र भूख-प्यास के कारण उसके आधीन होकर आत्माके द्वारा जो अन्न-पानी आदि ग्रहण किये जाते हैं, उसको आहार कहते हैं ।
निश्चय नय से आत्मा का अपने स्वभाव में स्थिर होना ही आसन है परन्तु जब स्वकीय स्वभाव में स्थिर रहने में समर्थ नहीं होता है, तब लोकव्यवहार में स्वकीय स्वभाव में स्थिर होने के निमित्तभूत यम, नियम आदि आठ अंगों के मध्य में शरीर की ग्लानि ( थकावट ) और आलस्य को दूर करने के लिए, नाना प्रकार के तपश्चरण
भार को वहन करने में समर्थ करने के लिए तथा स्वमें स्थिरता लाने की पाटव (चतुरता ) उत्पन्न करने के लिए, शास्त्र में निर्दिष्ट ( कथित) पर्यंक्रासन, अर्ध पर्यकासन, वीरासन, वज्रासन, स्वस्तिकासन, पद्मासन आदि अनेक प्रकार के आसन कहे हैं।