Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराथनासार-७६
ननु ग्रंथवानप्यात्माराधको घटते चित्तनिर्मलीकरणत्वात् किं ग्रंथपरित्यागविकल्पेनेत्याशंक्याह
जाम ण गंथं छंडइ ताम ण चित्तस्स मलिणिमा मुचड़। दुविहपरिग्गहचाए णिम्मलचित्तो हवइ खवओ॥३२ ।।
यावन्न ग्रंथं त्यजति तावत्र चित्तस्य मलिनिमानं मुंचति ।
द्विविधपरिग्रहत्यागे निर्मलचित्तो भवति क्षपकः॥३२॥ ण छंडइ न त्यजति । कोसौ। स पूर्वोक्त आराधकः । कथं । जाय यावत् यावत्कालं । कं । गंथं । ग्रंथ परिग्रह ताम पण मुयइ तावत्कालं न मुंचति। कं। मलिणिमा मलिनिमानं मलिनत्वं । कस्य। चित्तस्स चित्तस्य यावत्कालपरिमाणं ग्रंथ न त्यजति तावत्कालं चित्तमलिनतां न मुंचति इत्यर्थः । द्विविधपरिग्रहत्यागी कथंभूतो भवतीत्याह। हवइ भवति। कोसौ। खघओ क्षपक: कर्मक्षपणशीलः। कथंभूतो भवति । णिम्भलचित्तो निर्मलचित्त; रागद्वेषादिजनितसकलकालुष्यरहितचेताः। किं कृते सति । दुविहपरिग्गहचाए द्विविधपरिग्रहत्यागे बाह्याभ्यंतरभेदाद् द्विविधपरिग्रहत्यागे कृते सति यः कश्चिदात्मानमाराधयितुकामः स पूर्वं चित्तशुद्ध्यै चित्तकालुष्यहेतून् परिग्रहान् ममैते तेभ्यः समाधानं जायते इतीमा शंकामपि विहाय परमात्मानं भावयेति तात्पर्यम्॥३२॥
परिणामों की निर्मलता होने से परिग्रहवान भी आत्मा का ध्यान कर सकता है, क्योंकि बाह्य परिग्रह का संयोग निमित्त मात्र है अत: इस परिग्रह के त्याग के विकल्प से क्या प्रयोजन है? ऐसा कहने वालों के प्रति आचार्य उत्तर देते हैं -
"जब तक ग्रन्थ (परिग्रह) को नहीं छोड़ता है तब तक चित्त की (मानसिक) मलिनता नहीं छूटती है, नष्ट नहीं होती है। क्योंकि परिग्रह का त्याग करने पर ही क्षपक निर्मलचित्त वाला होता है।३२॥
जब तक क्षपक बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग नहीं करता है, 'ये बाह्य पदार्थ मेरे हैं' इस प्रकार की भावना को नहीं छोड़ता है, तब तक चित्त रागद्वेषजनित सकल कालुष्य भाव रूप मलिनता का परित्याग नहीं करता है अर्थात् मन को मलिन करने वाले परिग्रह का त्याग किये बिना चित्त रागद्वेष रहित नहीं होताजैसे तन्दुल का बाह्य छिलका निकाले बिना अभ्यन्तर की लालिमा नष्ट नहीं होती। बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करने पर क्षपक राग-द्वेष आदि सकल कालुष्य भाव रहित निर्मल चित्तवाला होता है। इसलिए जो कोई भव्यात्मा, आत्माराधना का इच्छुक है, उसे पूर्व में चित्तकी कलुषता के हेतुभूत बाह्य परिग्रह का त्याग करके शुद्धात्मा का ध्यान करना चाहिए, परमात्मा का ध्यान करना चाहिए |॥३२॥