Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - ७३
यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा, यावच्चेंद्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्य: प्रयत्नो महान्
संदीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः" ॥२५/२६/२७/२८ ।। व्यवहारार्हलक्षणं प्रपंच्य इदानीं निश्चयाईलक्षणं कथयति
सो सण्णासे उत्तो णिच्छयवाईहिं णिच्छयणएण । ससहावे विण्णासो सवणस्स वियप्परहियस्स ॥२९॥
स संन्यासे उक्त: निश्चयवादिभिर्निश्चयनयेन ।
स्वस्वभावे विन्यासः श्रमणस्य विकल्परहितस्य ।।२९।। उत्तो उक्तः कथितः। कैः। णिच्छयवाईहिं निश्चयवादिभिः। केन कृत्वा। णिच्छयणएण निश्चयनयेन । कोसौ। अर्हः अत्रास्याध्याहारः अस्यैवाधिकारप्रतिपादनत्वात् । क्व! संन्यासे समाधिलक्षणे। कः। सो। स इति कः । यस्य सवणस्स श्रमणस्य आचार्यस्य अस्ति । कोसौ। विण्णासो विन्यास: विन्यसनं स्थापनमित्यर्थः। क्व विन्यासः। ससहावे स्वस्वभावे समस्तदेहादिविभावपरिणामविलक्षणसहजशुद्धचिदानंदसंदोहनिर्भरे स्वस्वरूपे। किं विशिष्टस्य श्रमणस्य। विकल्परहितस्य शरीर कलत्रपुत्रादिजनितसमस्तविकल्पवर्जितस्य विकल्परहितश्रमणस्य यस्य स्वस्वभावे विन्यासः स निश्चयनयेन निश्चयवादिभिः संन्यासार्ह उक्त इत्यन्वर्थः ।।२९ ।।
जब तक यह शरीर स्वस्थ है (नीरोग है), जब तक वृद्धावस्था ने इसका स्पर्श नहीं किया है, जब तक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में असमर्थ नहीं हुई हैं, जब तक आयु का क्षय नहीं हुआ है, तब तक विद्वानों को आत्मकल्याणकारी कार्यों में महान् प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि घर में अग्नि लग जाने पर कुआ खुदवाने से क्या प्रयोजन है ॥२५-२८ ।।
इस प्रकार आचार्यदेव ने व्यवहार नय से संन्यास की योग्यता का कथन किया है। अब निश्चय नय से संन्यास की योग्यता का लक्षण कहते हैं
विकल्परहित श्रमण का स्वकीय स्वभाव में स्थिर हो जाना ही निश्चय नय के द्वारा निश्चयवादियों ने संन्यास कहा है ।।२९ ।।
निश्चय नय अभेद रूप कथन करता है अतः इसकी अपेक्षा आधार और आधेय एक ही होता है, भिन्नभिन्न नहीं ।
पुत्र-पौत्रादि मेरे हैं- यह ममकार है और मैं इनका पिता, स्वामी आदि हैं- यह अहंकार है; विकल्प जाल है। मन में अनेक प्रकार के द्वन्द्व उठते हैं, वे विकल्प कहलाते हैं। उन विकल्पजालों से रहित को निर्विकल्प वा अविकल्प कहते हैं। सारे विकल्पों से रहित निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त मुनिराज जब सारे देहादि विभाव परिणामों से विलक्षण (रहित सहज शन चिदानन्दमय स्वकीय स्वभाव में स्थिर होते हैं. लीन होते हैं. स्व-स्व: करते हैं, तब निश्चय नय से निश्चयवादियों ने उस अवस्था को संन्यास का विन्यास वा संन्यास की योग्यता कहा है।॥२९॥