Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार-७२
भीउच्च भीत इव त्रासयुक्त इव | यथा कश्चन अतिरौद्ररूपसिंहव्याघ्रताडनमारणादिकारणेभ्यो भीत: कंपते तथायं देहो मरणभयात्कंपते, वृद्धावस्थायां हि शरीरे स्वयं कंप: संजायते। यावदीदृगवस्थाकारिणी वृद्धावस्था न समायाति तावद्यौवनमध्यावस्थायां सत्यां स संन्यासा) भवतु इत्यने वक्ष्यतीति तात्पर्य । न केवलं देहो मृत्योर्भयात् कंपते। जाम | वियलइ यावन्न विगलति। कोसौ। उज्जमो उद्यमः कार्यारंभाय समुत्साहलक्षणः। केषु । संजमतवणाणझाणजोएसु, संयमतपोज्ञानध्यानयोगेषु। तत्र संयमः इंद्रियप्राणादिसंयमनलक्षणः, तपः अनशनावमौदर्यादिलक्षणैर्बहुप्रकारः, ज्ञानं श्रुतज्ञानं, ध्यानं धर्मशुक्लरूपं, योग: यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधिलक्षणः। संयमश्च तपश्च ज्ञानं च ध्यानं च योगश्च संयमत्रज्ञानध्यानयोगाम्नेषु 1 वृद्धावस्थायां हि संयमादिविषये उद्यमः स समयं समयं विगलति एव । यथा यौवनावस्थायां समुत्साहस्तेषु समुदयति तथा न भवतीति । यावद्वृद्धावस्था न समायाति तावत्स पुरुषः उत्तमस्थानस्यार्हः संपद्यते इति तात्पर्य। उक्त चलगता है, उसी प्रकार कायर मानव का शरीर मृत्यु के भय से कम्पित हो जाता है। अथवा वृद्ध अवस्था
आ जाने पर शरीर स्वभाव से ही काँपने लग जाता है। अतः जब तक शरीर और मन मजबूत है, कम्पायमान नहीं है और जब तक ऐसी अवस्था को करने वाली वृद्धावस्था नहीं प्राप्त हुई है, युवावस्था है तब तक ही यह मानव संन्यास के योग्य होता है, ऐसा आगे कहेंगे।
प्राणी संयम (छह काय के जीवों की रक्षा करना) और इन्द्रिय संयम (स्पर्शनादि पाँचों इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से रोकना) के भेद से दो प्रकार का संयम है। अथवा कषायों का निग्रह, इन्द्रियों पर विजय, काय की कुटिल प्रवृत्ति का त्याग तथा अहिंसादि व्रतों का पालन करना संयम है। अनशन, अवमौदर्य आदि १२ प्रकार का तप है। श्रुत का अभ्यास ज्ञान कहलाता है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान को यहाँ ध्यान कहा है क्योंकि आतं, रौद्र ध्यान संन्यास के विघातक हैं। अत: उनका यहाँ ग्रहण नहीं है।
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये योग कहलाते हैं।
विशेषार्थ- हे क्षपक ! भोग्य और उपभोग्य वस्तुओं का जो जीवन पर्यन्त के लिए त्याग किया जाता है, वह यम कहलाता है। अथवा अहिंसा, सत्य,अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह थे पाँच यम हैं। जिस प्रकार यम (मृत्युदेव) प्राणों का घात करता है उसी प्रकार अहिंसादि महाव्रत संसार के नाशक होने से यम कहलाते हैं।
अथवा मन वचन काय को स्थिर करना, चित्त को अपने में जोड़ना योग कहलाता है। जब तक संयम, तप, ज्ञान, ध्यान और योग के प्रारम्भ में उत्साह है, उद्यम है, इनमें प्रवृत्ति है तब तक यह मानव संन्यास के योग्य है। जैसा युवावस्था में संयमादि विषयों में उद्यम वा उत्साह रहता है वैसा उत्साह वृद्धावस्था में नहीं रहता है, क्योंकि वृद्धावस्था में समय-समय उत्साह नष्ट होता है। अत: जब तक वृद्धावस्था नहीं आती है तब तक यह पुरुष उत्तम स्थान के योग्य होता है। सो ही ज्ञानार्णव में कहा है