Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार -७१
केवलं आहारासननिद्राणां विजयोस्ति। जाम ण तरड़ य यावन्न तरति च। कोसौ । णिज्जावओ निर्यापक: शास्रोक्तलक्षणः। केन। अप्पणे ण य आत्मनैव। कं । अप्पाणं आत्मान आचारशास्रोक्ताष्टचत्वारिंशनिर्यापकाननपेक्ष्य आत्मनैव निर्यापको भूत्वा आत्मानं तरति यावत्। न केवलमात्मनैव निर्यापकों भूत्वा आत्मानं यावत्तति । जाम ण सिढिलायति य यावन्न शिथिलायते यावत्काल शिथिल इव नाचरंति । कानि । अंगोपांगानि। अंगानि शिरोभुजादिलक्षणानि । एतेभ्यः अवशेषाणि उपांगानि । उक्तं च
चरणयुगं बाहुयुगं पृष्ठकटी मस्तकादि वक्षश्च ।
एतान्यंगान्यष्टौ देहे शेषाण्युपांगानि। इति | ___ न केवलं अंगोपांगानि शिथिलायते संधिबंधाई संधिबंधारच शरीरेऽस्थ्ना संधयः संधानानि तेषा बंधः शिरास्नायुजालेन परस्परजड़ाकरणानि । न केवलमंगोपांगसंधिबंधाः शिथिलायते। जाम पण कंपइ यावच्च न कंपते। कोसौ। देहो देहः शरीरं । कस्मात् । भयेण भयात्। कस्य। मिच्चुस्स मृत्योः। देहात्, प्राणसमुदायविघटनसामर्थ्ययुक्तनिजार्जितायुः कर्म-भवस्थितिपरिसमापक समयलक्षणकालस्य। क इव ।
__ संन्यास की विधि में शास्त्रोक्त लक्षण से युक्त अड़तालीस सहायक मुनियों के साथ ब और पर के तारक निर्यापक आचार्थ का होना भी परम आवश्यक है। क्योंकि केवल आत्मा ही निर्यापकाचार्य होकर आत्माको तार नहीं सकता अतः शास्त्रविधि को जानने वाले निर्यापकाचार्य का सानिध्य भी समाधि के लिए आवश्यक है।
जब तक अंग, उपांग, हड्डियों के सन्धि-बन्धन शिथिल नहीं हुए हैं, तब तक यह शरीर संन्यास के योग्य है। सिर, भुजा आदि अंग कहलाते हैं और कान, नाक, आँख, अंगुली आदि उपांग कहलाते हैं। सो ही कहा है
"दो चरण, दो हाथ, पीट, मस्तक, कटि (कमर) और वक्षस्थल ये आठ अंग हैं और शरीर के शेष अवयव उपांग हैं। ये अंग-उपांग शिथिल नहीं हुए हैं तब तक ही मानव सन्यास के योग्य होता है।
शरीर में जो हड्डियों का जोड़ है उसको संधि-संधान कहते हैं। उन संधिया के संधान का शिरा, स्नायु, जाल आदि के द्वारा परस्पर संघटन होता है, मजबूती आती है, उसको संधिबंधन कहते हैं। ह क्षपक! जब तक संधिबंधन ढीले नहीं पड़े हैं, शिथिल नहीं हुए हैं तब तक तू सन्यास के योग्य है ।
प्राण समुदाय (पाँच इन्द्रिय, मन, वचन, काय रूप तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दश प्राण हैं- इन प्राणों के समुदाय) का विघटन करने में (नाश करने में) समर्थ, निज भावों से उपार्जित आयु कर्म से उत्पन्न भवस्थिति के परिपाक (नाश) का समय मृत्यु कहलाती है, अर्थात् आयु की समाप्ति हो जाने से प्राणों का विघटन हो जाना ही मृत्यु है। जैसे अति क्रूर सिंह, न्याघ्र आदि को देखकर प्राण्यी भय से काँपने