Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार-६४
आत्मपरावबोधरहितस्य बोधिः समाधिराराधना न भवतीत्येवं बुद्धवा यथोक्तलक्षणनिजात्मद्रव्यपरद्रत्र्यस्वरूपं परिज्ञाय तत्र परद्रव्य हेयमात्मद्रव्यमुपादेयमिति तात्पर्यार्थः ॥२१॥
एवमाराधकविराधकयोः स्वरूप प्रकाश्येदानीं अरिह इत्यादिसप्तभिः स्थलैः कर्मरिपुं हंतुकामस्य क्षपकस्य वक्ष्यमाणसामग्री मेलयित्वा कर्माणि हंतु भवान् इति शिष्यं प्रयच्छन्नादौ तेषां सप्तस्थलाना गाथाद्रये नामानि प्रकटयत्राह
अरिहो संगच्चाओ कसायसल्लेहणा य कायव्वा। परिसहचमूण विजओ उवसग्गाणं तहा सहणं ।।२२।। इंदियमल्लाण जओ मणगयपसरस्स तह य संजमणं। काऊण हणउ खवओ चिरभवबद्धाइ कम्माइं॥२३॥
भेदविज्ञानत:- आज तक जो कोई सिद्ध हुए हैं । मेदविज्ञान से सिद्ध है और जो आज तक बन्धन में बद्ध हैं वे उसी भेदविज्ञान के अभाव से बद्ध हैं।
निश्चय नय से ज्ञान दर्शन स्वभाव युक्त जीव को ही आत्मा कहा गया है। तथा द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म रूप जो द्रव्य आत्मा के साथ लग रहा है वह पर द्रव्य है। इस तरह निज और पर को जानने से ही बोधि आदि की प्राप्ति होती है। गाथा की उत्थानिका में शिष्य ने प्रश्न किया था कि जो आत्मा और पर को नहीं जानता उसके आराधना होती है या नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य ने कहा है कि ऐसे जीव के आराधना तो होती ही नहीं है किन्तु उसकी पूर्ववर्तिनी समाधि और समाधि की पूर्ववर्तिनी बोधि भी नहीं होती।
___ आत्मा और पर के ज्ञान से रहित जीव के बोधि, समाधि तथा आराधना नहीं होती है, ऐसा समझकर यथोक्त लक्षण वाले निजात्म द्रव्य और शरीर आदि पर-द्रव्य के स्वरूप को जानकर निजशुद्धात्मा को उपादेय और परद्रव्य को हेय समझना चाहिए ॥२१॥
इस प्रकार आराधक और विराधक के स्वरूप का कथन करके इस समय 'अरिहो' इत्यादि सात गाथाओं के द्वारा कर्म-शत्रुओं का संहार करने के इच्छुक क्षपक को आगे कही जाने वाली सामग्री को प्राप्त कर 'आप कर्मों का नाश करो' इस प्रकार शिष्य को सम्बोधित करके आचार्यदेव सामग्री के नामों का उल्लेख करते हैं
"अर्ह (योग्य), परिग्रह का त्यागी, कषायों को कृश करने वाला, परिषह रूपी सेना को जीतने वाला, उपसर्गों को सहन करने वाला, इन्द्रिय रूपी मल्लों पर विजय प्राप्त करने वाला और मनरूपी हाथी के प्रसार को रोकने वाला, क्षपक चिरकाल के बँधे हुए कर्मों का क्षय करता है॥२२-२३॥