Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
View full book text
________________
आराधनासार- ६३
ननु भगवन् परमात्मानं मुक्त्वा परद्रव्यं चिंतयति यः स मया विराधको ज्ञात: यस्तु आत्मानं परमपि
न बुध्यते तस्याराधना घटते न वेति पृष्टे आचार्यः प्राह
-
जो वि बुज्झइ अप्पा णेय परं णिच्छयं समासिज्ज । तस्स या बोही भणिया साहीराहणा गो ।। २१ ।।
यः नैव बुध्यते आत्मानं नैव परं निश्चयं समासृत्य | तस्य न बोधिः भणिता सुसमाधिराराधना नैव ॥ २१ ॥
वि बुज्झइ नैव बुध्यते न जानाति । कोसौ । जो यः कश्चिदपि पुरुषविशेषः । कं । अप्पा आत्मानं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि अततीति आत्मा तं । न केवलं आत्मानं बुध्यते । णेय परं परं नैव आत्मनो विलक्षणं देहादिपरद्रव्यं नैव । किं कृत्वा । समासिज्ज समासृत्य अवलंब्य । कं । णिच्छयं निश्चयं परमार्थं तस्स पा भणिया तस्य न भणिता आत्मपरभेदपरिज्ञानशून्यस्य न प्रतिपादिता । कासौ । बोही बोधिः । बोधेः किं लक्षणं । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तिप्रापणं बोधिः । न केवलं बोधिः । सुसमाही सुसमाधिश्च । सुसमाधेः किं लक्षणं । तस्यैव बोधेर्निर्विघ्नेन भवांतरावाप्तिरिति समाधिः । न केवलं सुसमाधिः । आराहणा आराधना नैव पूर्वोक्तलक्षणा । उक्तं च
-
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥
आगे कोई शिष्य पूछता है कि हे भगवन् ! परमात्मा को छोड़कर जो परद्रव्य का चिन्तन करता है वह विराधक है ऐसा मैंने जान लिया। परन्तु जो न आत्मा को जानता है और न पर को जानता है उसके आराधना हो सकती है या नहीं, ऐसा पूछे जाने पर आचार्य कहते हैं
जो पुरुष निश्चय नय का आलम्बन कर आत्मा को नहीं जानता है और पर को नहीं जानता है उसके न बोधि कही गई हैं, न सुसमाथि कही गई है और न आराधना ही कही गई है ॥ २१ ॥
टीका 'अतति इति आत्मा' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को प्राप्त हो वह आत्मा है। आत्मा से भिन्न शरीरादिक पर द्रव्य है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की अपूर्व प्राप्ति होना बोधि है, बोधि का निर्विघ्नरूप से भावान्तर में प्राप्त होना समाधि है तथा आराधना का लक्षण पहले कहा जा चुका है। जो जीव निश्चयनय के अनुसार न आत्मा को जानता है और न पर को जानता है उसे न बोधि की प्राप्ति होती है, न समाधि की प्राप्ति होती है, और न आराधना की ही प्राप्ति होती है। जैसा कि कहा है