Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार-६२
स्यात् निजात्मभिन्नात्म-द्रव्यत्वादिति चेत्सत्यं । यः कश्चिद्यथावद्वस्तुस्वरूपं परिज्ञाय स्वशुद्धात्मानमाराधयितुं प्रवृत्तोपि अदृष्टाश्रुताननुभूतत्वात्तत्राशु स्थितिमलभमानः सन् तन्निमित्तं विषयकषायवंचनार्थं च तदाराधकानां भिन्नात्मस्वरूपाणां।
पंचपरमेष्ठिना स्वरूपमाराधयन्न विराधकः। कुत इति चेत् । आत्मस्वरूपसाधकत्वात् । संसारपरिभ्रमणहेतुभूतहलौकिकपारलौकिकख्यातिपूजालाभ-भोगेंद्रियविषयजन्यसुखाभिलाषाभावात्। यस्तु इतरः। निजात्मस्वरूपस्यानुपादानेन निदाने नवगै वेयकसुखपर्यंतविपुलर्धिदायिविशिष्टपुण्यकारणं पंचपरमेष्ठिस्वरूपमाराधयन्नपि विराधकः पुनरपि संसारकारणत्वात् । यत्तु संसारकारणं तत्पुण्यमपि न भव्यं ।
मं पुणु पुण्णइ भल्लाइ णाणिय ताइ भणंति ।
जीवहं रज्जइ देवि लहु दुक्खई जाई जणंति । परमात्मप्रकाशे इत्युक्तत्वात् । उक्तं च
तेनापि पुण्येन कृतं कृतं यज् जंतोर्भवेत् संसृतिवृद्धिहेतुः ।
तच्चार्वपीच्छेन्ननु हेम को वा क्षिप्तं श्रुती त्रोटयते यदाशु । किं कृत्वा विराको भवति । मुलूणं गल्ला मोगल्य | कं। विमुद्धप्पा विशुद्धात्मानं विशुद्धो रागादिरहित आत्मा तं। कथंभूतं । रयणत्तयमइओ रत्नत्रयमयं विषयभेदेन सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रितयेन निर्वृतं । कुतः। अप्पणो आत्मनः निजात्मस्वरूपापादानभूतत्वात्। एवं ज्ञात्वा समस्तपरद्रव्यं विमुच्य भो भत्र्या निजदेहे निवसंत परमात्मानमाराधयंतु इति तात्पर्यार्थः ।।२०।। ।
उत्तर - यद्यपि तुम्हारा कहना सत्य है, फिर भी जो कोई भव्य यथावद् वस्तु के स्वरूप को जानकर स्व शुद्धात्मा की आराधना करने में प्रवृत होता है परन्तु अदृट, अश्रुत और अननुभूत होने से उस शुद्धात्म ध्यान में शीघ्र ही स्थिर नहीं हो पाता है इसलिए उस स्थिरता की प्रामि के लिए तथा विषय -कषायों से बचने के लिए, शुद्धात्म ध्यान में निमित्तभूत पंच परमेष्ठियों के स्वरूप की आराधना करता है, भले ही वे पंचपरमेष्ठी उसके आत्मस्वरूप से भिन्न हैं। उनकी आराधना करता हुआ भी वह जीव विराधक नहीं है, क्योंकि पंच परमेष्ठी आत्मस्वरूप के ही साधक हैं अर्थात् उनकी आराधना करने से आराधक का लक्ष्य आत्मस्वरूप की ओर ही सन्मुख होता है।
इसके सिवाय पञ्चपरमेष्ठी की आराधना में संसार परिभ्रमण के कारणभूत इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी ख्याति, पूजा, लाभ, भोग तथा इन्द्रिय विषय से उत्पन्न होने वाले सुख की अभिलाषा भी तो नहीं है। हाँ, इसके सिवाय जो निजात्म स्वरूप को ग्रहण न कर निदान रूप से नवग्रैवेयक सम्बन्धी सुख पर्यन्त की विपुल ऋद्धि को देने वाले विशिष्ट पुण्य का लक्ष्य बनाकर पञ्चपरमेष्ठियों के स्वरूप की आराधना भी कर रहा है वह विराधक है क्योंकि उसका यह कार्य संसार का कारण है। जो संसार का कारण है वह पुण्य भी अच्छा नहीं है क्योंकि परमात्मप्रकाश में कहा है- मं पुणु इति-ज्ञानी जीव उस पुण्य को भी भला नहीं कहते जो जीव को राज्यादिक देकर फिर शीघ्र ही द:ख उत्पन्न कराता है और भी कहा है-तेनापीति-जो किये जाने पर जीव के संसार की वृद्धि का हेतु होता है ऐसा पुण्य भी निरर्थक है। जो पहिनने पर शीघ्र ही कानों को तोड़ देता है ऐसे सुवर्ण की, उत्तम होने पर भी कौन इच्छा करता है ? अर्थात् कोई नहीं। इस प्रकार आराधक और विराधक का लक्षण जानकर हे भव्य जीवो ! निज देह में निवास करने वाले परमात्मा की आराधना करो यह तात्पर्य है ॥२०॥