Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आसथनासार - ६०
किंविशिष्टः । पत्तो प्राप्तः । किं । वेरगं वैराग्यं शरीरादौ परस्मिन्निष्टवस्तुनि प्रीतिरूपो रागः विनष्टो रागो । यस्यासौ विरागः विरागस्य भावो वैराग्यं संसारशरीरभोगेषु निर्वेदलक्षणं । न केवलं वैराग्यं प्राप्तः परमवसमं परमोपशमं च । अत्र रागादिपरिहारलक्षणमुपशमं आगमभाषया तु अनंतानुबंधिच्चतुष्टयमिथ्या-त्वत्रयस्वरूपाणां मोहनीयकर्मणः सप्तप्रकृतीनामुपशमनादुपशमः परमश्चासौ उपशमश्च परमोपशमः तं परमोपशमं समुद्रे वाता नाववत् स्वभावे रागिणो रागादिजनितविकल्पोत्पत्तेरभावलक्षणं । पुनः कथंभूतः । विविहतवतवियदेहो विविधतपस्तप्तदेह : विविधैर्वीतराग सर्वज्ञागमप्रतिपादितैर्बाह्याभ्यंतरल क्षणैर्मूलगुणोत्तरविशेषैर्नानाविधैस्तपोभिस्तप्तो देहः शरीरं यस्यासौ विविध तपस्तप्तदेहः । क्व । मरणे मरणपर्यन्तं । एवं गुणविशिष्टलक्षण आराधको मरणपर्यन्तं भवतीति तात्पर्यार्थः ॥ १८ ॥
उक्तानि कानिचिदाराधकलक्षणानि इदानीमन्यान्यपि वर्णयितुकाम आचार्य आहअप्पसहावे णिरओ वज्जियपरदव्वसंगसुक्खरसो । णिम्महियरायदोसो हवई आराहओ मरणे ॥ १९ ॥
आत्मस्वभावे निरतो वर्जितपरद्रव्यसंगसौख्यरसः । निर्मथितरागद्वेषो भवत्याराधको मरणे ॥ १९ ॥
शरीर आदि पर द्रव्य रूप इष्ट वस्तु से प्रीति (राग) का अभाव विराग है और विराग का भाव वैराग्य है। अर्थात् संसार, शरीर और पंचेन्द्रियजन्य विषयों से विरक्त होना वैराग्य है। यह वैराग्य भाव आराधना का साधन
है ।
रागादि का अभाव उपशम कहलाता है वा आगम भाषा में अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चारित्रमोहनीय की चार, मिथ्यात्व, सम्यक् मिध्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति दर्शनमोहनीय की तीन ऐसी मोहनीय कर्म की इन सात प्रकृतियों के उपशमन को उपशम भाव कहते हैं। वा रागादि विभाव भावों का मन्द हो जाना उपशम भाव कहलाता है। जैसे वायु के द्वारा अकम्पित ( चंचल नहीं होने वाले) समुद्र से नौका पार हो जाती है। यदि समुद्र वायु से चंचल है तो नौका डूब जाती है, वैसे ही जिस क्षपक का मन रागद्वेष आदि कल्लोलों से चंचल नहीं है वही अपनी आराधना रूपी नौका को अपने इष्ट स्थान पर ले जा सकता है। इसलिए आराधक के मन का रागद्वेष की कल्लोलों से चंचल नहीं होना ही परमोपशम भाव है। अर्थात् रागादिजनित विकल्पों के अभाव लक्षण रूप प्रशम भाव भी आराधक पुरुष का लक्षण है।
सर्वज्ञ वीतराग देव के द्वारा प्रतिपादित बाह्य अभ्यन्तर वा मूलगुण एवं उत्तर गुण रूप तपश्चरण के द्वारा जिसने अपने शरीर को तपाया है, वही पुरुष मरणकाल में आराधना का आराधक होता है ।। १८ ।।
इस प्रकार आराधक के लक्षणों का कथन करके आराधक के अन्य भी लक्षणों का कथन करने के इच्छुक आचार्य कहते हैं
जो निज स्वभाव में लीन है, जिसने परद्रव्य के संयोग से उत्पन्न सुख रस का त्याग कर दिया है और जिसने राग-द्वेष का मथन कर दिया है, अर्थात् राग द्वेष का नाश कर दिया है, ऐसा भव्य जीव मरण समय आराधना का आराधक होता है ॥ १९ ॥