Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - ५८
सम्यग्दर्शनादिचतुष्टयोद्योतनोपायस्वरूपा चतुर्विधाराधनैव । का। या । किं कृत्वा । उत्ता उक्ता प्रतिपादिता । कैः । मुणिदेहिं मुनींद्रैः मुनीनामिंद्रा मुनींद्राः सर्वज्ञास्तै: मुनींद्रैः । किंविशिष्टा । भेयगया भेदगत्ता सम्यग्दर्शनादीन् चतुरो भेदान् गता प्राप्ता हु खलु स्फुटं । केन करणेन भूतेन मोक्षस्य कारणं भवति । पारंपरेण पारंपर्येण अनुक्रमेण । कुतः । यथा निश्चयाराधना साक्षान्मोक्षफलरूपकार्यसाधिका भवति तथैव या न भवति किंतु बीजत्वात्। बीजो हि क्रमेण वृक्षफलत्वापन्नो दृष्टः । कश्चिद्भव्यजीवः काललब्धिं समवाप्य कर्मणः क्षयोपशमत्वात् गुरुचरणकमलसमीपं संप्राप्योपदेशं लब्ध्वा आराधयितुं प्रवृत्तः प्रथमं भेदाराधनया अभ्यासं विधाय पश्चादभेदेन परमात्मानं सम्यग्दर्शनादिचतुष्टयमयं समाराध्य घातिकर्मचतुष्टयक्षयं कृत्वा केवलज्ञानं समुत्पाद्य मोक्षं गच्छतीत्यभिप्राय: ॥ १६ ॥
नन्वाराधकः पुमान् किंलक्षणः कियत्कालं कृत्वा समाराधयतीति वदतं प्रत्याहहियकसाओ भव्वो दंसणवंतो हु णाणसंपण्णो । दुविहपरिग्गहचत्तो मरणे आराहओ हवड़ ॥ १७ ॥ निहतकषायो भव्य दर्शनवान् हि ज्ञानसंपन्नः । द्विविधपरिग्रहत्यक्तो मरणे आराधको भवति ॥ १७ ॥
हवइ भवति । कोसौ । आराहओ आराधकः ध्याता पुरुषः 1 कथंभूतः । हियकसाओ निहतकषाय: निहताः कषायाः येनासौ कदाचिदपि कषायैराविष्टो न भवतीत्यर्थः । पुनः कथंभूतः । भव्वो भव्यः मुक्तियोग्यः । पुनः कथंभूतः । दंसणवंतो दर्शनवान् सम्यग्दर्शनविराजमानः । पुनः किंविशिष्ट: 1 साधिका नहीं है अपितु परम्परा से मोक्ष की साधिका है क्योंकि व्यवहार बीज है; जैसे बीज क्रम (परम्परा) से वृक्ष फल को प्राप्त हुआ देखा जाता है, साक्षात् नहीं।
कोई निकट भव्य जीव कर्मों के क्षयोपशम से काललब्धि को प्राप्त कर, गुरुदेव के चरण-कमलों के समीप जाकर उनसे देशना लब्धि प्राप्त करता है, पश्चात् आराधना करने में प्रवृत्ति करता है। सर्व प्रथम भेद आराधना का अभ्यास करता है । तत्पश्चात् अभेद रूप (सम्यग्दर्शनादि भेदगत विकल्पों को छोड़कर) से सम्यग्दर्शनादि चतुष्टयमय परमात्मा की आराधना कर घातिचतुष्टय कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान को प्राप्तकर मोक्ष को प्राप्त करता है || १६ ||
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'आराधक पुरुष का लक्षण क्या है? और वह किस काल में आराधक होता है?" ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं
मन्द कषायी, सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञान सम्पन्न और दो प्रकार के परिग्रह से रहित भव्य जीव मरण समय में आराधक होता है ।। १७ ।।
आराधक पुरुष का पहला लक्षण है कि कितने ही उपसर्ग आदि कष्ट आने पर भी वह कषाय के उद्रेक से अनुरंजित न होवे |