Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - १९
तथा च षष्ठे पक्षे सुरसेण बंदियमित्यस्य पदत्रयं विधायार्थ समयते। सुरसेण बंदियं, रसशब्देन विष “विष: क्ष्वेडो रसस्तीक्ष्यमिति" विश्वः । ततोऽनंतानंतजन्ममहामूर्छाबीजत्व प्राणापहारकत्वात् सुष्टु अतिशयवान् योऽसौ रसो विष; स सुरस: सुविष; व्युत्पत्त्या कमैव न तु हालाहलादिः तस्य एकजन्मन एव प्राणापहारकत्वात्।
ततः कथंभूत सिद्ध । तेन सुरसेन कर्मणा दितं खंडितं 'दो अवखंडने' वियोजिमिति यावत्। यथा किल खंडितः पदार्थ: उभयापेक्षया वियोजित: स्यात् तथा चायं सिद्धः कर्मणा वियोजितः पृथग्भूत इत्यर्थः ।
अथमा - छठे पक्ष में रस शब्द का अर्थ विक भी होता है। "विष-क्ष्वेडो रसस्तीक्ष्यमिति" विश्वः । विश्वकोष में लिखा है कि विष, क्ष्वेड्, रस और तीक्ष्य ये एकार्थवाची हैं। इसलिए अनन्तानन्त जन्म की महामूर्छा का कारण होने से, वा ज्ञानादि भाव प्राणों का अपहारक होने से कर्म ही अतिशय सुष्टु 'सुरस' महाविष है, सुविष है, हालाहल विष है। अन्य विष एक जन्म सम्बन्धी प्राणों के घातक होने से हालाहलादि विष नहीं हैं। इसलिए जिन्होंने 'सुरस' कर्म रूप महाविष का 'दित' खण्डन कर दिया हैक्योंकि दो अवखण्डने' दो धातु खण्डना अर्थ में आती है अत: दितं= खण्डन कर दिया है, नाश कर दिया
जैसे खण्डित पदार्थ दोनों अपेक्षाओं से वियोजित होता है उसी तरह सिद्ध परमेष्ठी भी कर्म से वियुक्त हैं, पृथग्भूत हैं।
२. अनुमानित = कितना प्रायश्चित्त देंगे ऐसा अनुमान लगाकर दोषों को कहना। ३. दृष्टदोष = दूसरों के द्वारा ज्ञात दोषों को कहना, अज्ञात को छिपाना। ४, बादर = सूक्ष्म दोर्षों की परवाह न करके स्थूल दोषों को गुरु के समक्ष प्रकट करना। ५. सूक्ष्मदोष = स्थूल दोषों को छिपाकर सूक्ष्म दोषों को कहना। ६. छिन्न दोष = ऐसा दोष लगने पर क्या प्रायश्चित्त दिया जाता है, ऐसा पूछकर तत्पश्चात् दोषों का कथन करना। ७. शब्दाकुलित = पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण के समय जब जोर से शब्द हो रहा हो उस समय कहना। ८. बहुजन - अनेक साधुओं के पास जाकर प्रायश्चित्त लेना। ९. अव्यक्त दोष- दोषों का स्पष्ट कथन नहीं करना । १०. तत्सेवी - अपने समान दोषी के प्रायश्चित्त को सुनकर स्वयं प्रायश्चित्त लेना। ८४००० भेदों को स्त्रीसंसर्ग, प्रणीतरससेवन, गंधमालादि सुगंधित पदार्थों का संस्पर्श, कोमल शय्यासन, शरीर पर आभूषण आदिका धारण, गीतादि का श्रवण, अर्थग्रहण, कुशीलोंकी संगति, राजसेवा और रात्रिसंचरण इन दस से गुणा करने पर ८४०००० भेद होते हैं। इन भेदों को पांच इन्द्रियों को वश में रखना तथा पाँच प्रकार के जीवों की विराधना नहीं करनाइन दश प्रकार के संयमों से गुणा करने पर ८४००००० उत्तर गुण होते हैं।