Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार -५४
कार्यरूपानंतचतुष्टयस्वरूपशुद्धपरमात्मोत्थातींद्रियानंतसुखस्योत्पादकत्वात्। न केवलं कारण-कार्यविभाग ज्ञात्वा । किं च लहिऊण लब्ध्वा प्राप्य | का | कालपहुदिलद्धीए कालप्रभृतिलब्धीः कालादिलब्धीः । ननु कारणकार्यविभागे ज्ञाते किमेताभिः कालप्रभृतिलब्धिभिः। मैवं वादीः। कारणकार्यविभागज्ञा कालप्रभृति लब्धिः कारणद्वयसाध्यस्य मोक्षकार्यस्थान्यथानुपपत्तेः। यदुक्तं --
कारणद्वयसाध्यं न कार्यमेकेन जायते ।
द्वन्द्वोत्पाद्यमपत्यं किमेकेनोत्पद्यते क्वचित् ॥ यदा क्षपकः क्षपितकर्मा भव्यः कारणकार्यविभागं ज्ञात्वा कालप्रभृतिलब्धीश्च लब्ध्वा शुद्धपरमात्मानमाराधयति तदा सकलकर्मप्रक्षयं कृत्वा मोक्ष गच्छतीत्यभिप्रायः ।।१३।। ननु यद्यात्मानमाराधयितुं न लभते जीवस्तदा किं करोतीत्याशंक्याह
जीवो भमइ भमिस्सइ भमिओ पुव्वं तु णरयणरतिरियं । अलहतो णाणमई अप्पाआराहणा णाउं॥१४॥
अथवा-कार्य रूप अनन्त चतुष्टय स्वभाव शुद्ध परमात्मा से उत्पन्न अतीन्द्रिय सुख का उत्पादक होने से मोक्ष कारण है और अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति वा स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धि कार्य है, क्योंकि वह उत्पाद्य है। इस प्रकार कार्य-कारण, उत्पाद्य-उत्पादक, जन्य-जनक के विभाग को जानकर चार आराधना की आराधना करनी चाहिए। मोक्ष की सिद्धि में कार्य-कारण भाव के विभाग को जानना और काललब्धि की प्राप्ति की क्या आवश्यकता है? ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि कार्य-कारण और काललब्धि इन दो कारणों के द्वारा साध्य मोक्ष रूप कार्य कभी एक कारण से नहीं हो सकता। सो ही कहा है
"दो कारणों से साध्य कार्य एक कारण से उत्पन्न नहीं हो सकता। दो कारणों से (माता-पिता संयोग से) उत्पद्यमान पुत्ररूप कार्य एक कारण से नहीं हो सकता।" इसलिए कर्मों के नाश का इच्छुक भन्य क्षपक जब कारण-कार्य विभाग को जानकर और कालादि लब्धि के संयोग को प्राप्त कर, निश्चय और व्यवहार इन दोनों आराधनाओं के बल से निज शुद्ध परमात्मा की आराधना करता है, तब सकल कर्मों का नाशकर मोक्षपद को प्राप्त करता है। इसलिये हे क्षपक ! तू निश्चय और व्यवहार रूप दोनों आराधनाओं की अंतरंग भावना से आराधना कर ।।१३।।
शंका - यदि यह संसारी आत्मा निज शुद्ध आत्मा की आराधना नहीं करता है, तो क्या होता है? इस शंका का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं
यह जीव ज्ञानमय निज शुद्ध आत्मा की आराधना करने में वा शुद्धात्मा को जानने में समर्थ नहीं है, वा शुद्धात्मा को नहीं जानता है अत: इसने भूत काल में नरक-मानव-तिर्यंच और देव इन चारों गतियों में भ्रमण किया है, वर्तमान में भ्रमण कर रहा है और भविष्य में भी भ्रमण करता रहेगा। अर्थात् संसारवास को छोड़ नहीं सकता।।१४।।