Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आनासार-२७
जीवकर्मणोरन्योन्यप्रदेशप्रवेशात्मको बंधः, आस्रवनिरोधः संवरः, कर्मणामेकदेशगलनं निर्जरा, बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्मकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः, शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्य, अतोन्यत्पापं! अमी नव पदार्थसंज्ञा लभंते। उक्तस्य पंचविधस्याजीवस्य निर्देशो विधीयते। तत्र स्पर्शरसंगधवर्णवतः पुद्गलाः, जीवपुदलानां गते: सहकारिकारणं धर्म:, स्थानयुक्तानां स्थिते: सहकारिकारणमधर्म:, सर्वद्रव्याणामवकाशदानदायकमाकाश, वर्तनालक्षणः कालः। अमी कालेन विना जीवेन सह पंचास्तिकायसंज्ञां लभते । पुण्यपापाभ्यां विना नव पदार्थाः सप्त तत्त्वसंज्ञा लभंते । एतेषां सप्रपंचविशेषा: परमागमतो विज्ञेया अत्र तु नोच्यते ग्रंथगौरवभयात् बहुषु ग्रंथेषु प्रोक्तत्वाच्च। अमी यथा जिनेंद्रेण प्रतिपादितास्तथैव सम्यक्त्वलिंगिता भवंति नान्यथेति विश्वासः प्रतीति; रुचिः श्रद्धानं भण्यते। तच्च तनिसर्गादधिगमाद्वेति
जिसका दूसरा विभाग नहीं कर सकते, जिसमें दो स्पर्श एक रस, एक गन्ध और एक वर्ण पाया जाये उसको परमाणु कहते हैं। परमाणुओं के समूह को स्कन्ध कहते हैं। जिसका विभाजन किया जाता है जो इन्द्रियों का विषय है तथा जो इन्द्रियों के द्वारा उपभोग में आता है उसे स्कन्ध कहते हैं।
__ जीव और पुद्गल के गमन में जो सहकारी होता है, उसे धर्म द्रव्य कहते हैं, जैसे मछली के चलने में जल । जीव और पुद्गल के ठहरने में जो सहकारी होता है, उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं, जैसे पथिक के ठहरने में वृक्ष की छाया।
जीवादि छहों द्रव्यों को जो अवकाश देता है, स्थान देता है उसे आकाश कहते हैं। इसके दो भेद हैंलोकाकाश और अलोकाकाश। जिसमें जीवादि छहों द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं जिसमें केवल आकाश द्रव्य है, उसे अलोकाकाश कहते हैं।
जीवादि छहों द्रव्यों के परिवर्तन में जो कारण बनता है उसे काल द्रव्य कहते हैं। निश्चय और व्यवहार के भेद से काल द्रव्य दो प्रकार का है: द्रव्यों का प्रतिक्षण जो परिवर्तन होता है, वर्तना होती है वह निश्चय काल है। निश्चय काल का कारण तथा आवली, नाड़ी, घड़ी, दिन, सप्ताह, पक्ष, महीना, ऋतु, अयन, वर्ष आदि का जो ज्ञान कराता है वह व्यवहार काल है।
प्रदेशों का समूह जिन द्रव्यों में पाया जाता है वे अस्तिकाय कहलाते हैं। जीव, पुदल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच अस्तिकाय हैं। जीव, धर्म और अधर्म असंख्यात प्रदेशी हैं। आकाश अनन्त प्रदेशी है। यद्यपि पुद्रलपरमाणु एक प्रदेशी है परन्तु उन परमाणुओं में स्कन्ध होने की शक्ति है। इसलिए उपचार से पुद्गल संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी कहलाता है। काल द्रव्य उपचार से भी अस्तिकाय नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार पुल द्रव्य स्कन्ध होकर इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य होता है, विभाजन के योग्य हो जाता है इसलिए उपचार से अस्तिकाय होता है, परन्तु काल द्रव्य का संचय नहीं होता और न उसका हम विभाजन कर सकते हैं अर्थात् जैसे पुद्गल स्कन्ध का विभाजन करके छोटा- बड़ा कर सकते हैं वैसे काल का विभाजन करके छोटा-बड़ा नहीं कर सकते अतः काल अस्तिकाय नहीं है।
तत्त्व सात हैं जीव, अजीच, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष।
जीव-अजीव का लक्षण पहले कह दिया है। कर्मों के आगमन को आस्रव कहते हैं। वह आम्रव दो प्रकार का है। द्रव्य और भाव | जीव के जिन भावों से कर्म आते हैं, उन भावों को भाव आसव कहते हैं। वे भाव पाँच प्रकार के हैं- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।