Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
View full book text
________________
आराधनासार - ३७
येनेदं त्रिजगद्वरेण्यविभुना प्रोक्तं जिनेन स्वयं, सम्यक्त्वाद्भुतरत्नमेतदमलं चाभ्यस्तमप्यादरात् । भक्त्वा स प्रसभं कुकर्मनिचय शक्त्या च सम्यक् पर
ब्रह्माराधनमद्भुतोदितचिदानंदं पदं विंदते ।। इति सम्यग्दर्शनाराधनालक्षणप्रतिपादनेन चतुर्थगाथासूत्रं गतं ॥४॥ हे क्षपक ! तू यदि अपना हित चाहता है तो जिनमत में तथा आत्मतत्त्वके स्वरूप में कभी शंका-संशय मत कर। मृत्यु का भय मत कर। (नि:शंकित अंग)।
ये सांसारिक भोग विनाशशील हैं, आत्मा के शत्रु हैं, अतृप्ति के कारण हैं, अतः सांसारिक भोगों की वा सांसारिक भोगों के लिए अन्य धर्म की वाञ्छा वा उसकी प्रशंसा मतकर। (नि:कांक्षित अंग)।
हे क्षपक ! किसी भी प्रकार की आपत्ति या भय के कारणों के उपस्थित होने पर भी धर्म से ग्लानि नहीं करना वा दिगम्बर साधुओं के शरीर को देखकर हृदय में जुगुप्सा नहीं करना। क्योंकि यह भावना धर्म की घातक है। (निर्विचिकित्सा अंग)
हे क्षपक ! तू तत्त्व-कुतत्त्व की पहिचान कर। कुमार्ग और कुमार्गगामियों की वचन से स्तुति, मन से प्रशंसा और काय से सराहना मत करना। अपने चित्त की धारा को विक्षिप्त मत करना । (अमूढदृष्टि अंग)
हे क्षपक ! धर्मात्माओं के दोषों को प्रगट करने की भावना मत कर । स्वकीय धर्म को वृद्धिंगत करने का प्रयत्न कर | अन्य के दोषों को प्रकट करने की भावना सम्यग्दर्शन की घातक है। (उपगृहन अंग)।
हे क्षपकराज ! सम्बग्दर्शन और सम्यक्चारित्र से च्युत होने वाले स्वकीय मन को अपने में स्थिर करने का प्रयत्न कर। यदि प्रमाद वा अज्ञान से तेरा मन क्वचित् विकृत होगा, वा सम्यग्दर्शन और चारित्रसे च्युत होगा तो तेरा कुमरण होगा और तुझे दुर्गतियों में भ्रमण करना पड़ेगा। (स्थितीकरण अंग)
हे आराधक ! तू शिवसुख के कारणभूत ‘अहिंसा परमो धर्मः' में प्रीति कर । निष्कपट भावों से धर्मात्माओं के साथ वात्सल्य भाव रख। (वात्सल्य अंग)
हे गुणाधिप ! रत्नत्रयरूपी अग्नि के द्वारा अपनी आत्मा को निर्मल कर तथा दान, तप, जिनपूजा के द्वारा जिनधर्म का प्रचार-प्रसार कर। (प्रभावना अंग)
हे क्षपकराज! प्रमाद को छोड़कर जो जीवादि पदार्थ हेय (आस्रव, बंध) हैं उनका हेय रूप से श्रद्धान कर और उपादेय (संवर, निर्जरा और मोक्ष) का उपादेय रूप से श्रद्धान कर 1 यह व्यवहार सम्यग्दर्शन आराधना
चिदानंद चैतन्य स्वरूप अपनी आत्मा की आराधना करना, स्वकीय आत्मा की रुचि, प्रीति निश्चय आराधना है। सम्यग्दर्शन आराधना का फल
तीन जगत् में श्रेष्ठ, जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कथित सम्यग्दर्शन से उत्पन्न इस निर्मल रत्न का आदरपूर्वक अभ्यास करो। हे क्षपकः । इस सम्यग्दर्शन का अभ्यास करने वाले महानुभाव शीघ्र ही अपनी शक्ति से कर्मो के समूह का नाश कर परम ब्रह्म की आराधना कर चिदानंद चैतन्य स्वरूप परमात्म पद को प्राप्त करते हैं।
सम्यग्दर्शन नामक आराधना के लक्षण का वा दर्शन आराधना का प्रतिपादन करने वाली चौथी गाथा पूर्ण हुई ।।४।।