Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार- ४१
अत्र भवतीति क्रिया अध्याहार्या । भवति । कासौ। चारित्ताराहणा चारित्राराधना । का। एसा एषा | एषेति का। चरणं चरणं अनुष्ठान। कस्य । चरित्तस्स चारित्रस्य । कतिविधस्य । तेरहविहस्स त्रयोदशविधस्य त्रिभिरधिका दश तस्य पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिलक्षणस्य । उक्तं च
'इसका नाक काट लो', 'यह पापी है' 'दुष्ट है 'तू मर जा' इत्यादि कठोर वचनों का उच्चारण करना अप्रशंसनीय निंदनीय वचन है। इन चारों प्रकार के असत्य का त्याग करने से सत्य महावत होता है।
_ बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करना अचौर्य महाव्रत है। वा जिनेन्द्रकथित मार्ग के अनुसार चलना, उसके कथन को नहीं छिपाना अचार्य महाव्रत है। मन, वचन, काय, कत-कारित-अनुमोदना से स्त्री मात्र का त्याग स्वकीय परम ब्रह्म आत्मा में रमण करना ब्रह्मचर्य महाघ्रत है।
दु:ख वा आकुलता के कारण, वैर-विरोध को बढ़ाने वाले, दुर्गति में ले जाने वाले परिग्रह का त्याग करना: पिच्छिका, कमण्डल एवं शास्त्र के सिवाय सब वस्तुओं का त्याग करना अपरिग्रह महाव्रत है।
सम् सम्यक्प्रकार की 'इति' प्रवृत्ति रूप क्रियाओं को समिति कहते हैं। संसारी जीवों की प्रवृत्तियाँ पाँच प्रकार की हैं। चलना, बोलना, खाना, किसी वस्तु को उठाना-रखना और शरीर का मैल, मल, मूत्र, नाक का मल, नख, केश आदि का क्षेपण करना।
इन क्रियाओं के कारण प्रवृत्तियों के पाँच नाम हैं जिनको समिति कहते हैं।
ईर्या समिति - 'ईर्' धातु गमन करने के अर्थ में आती है। चार हाथ जमीन देखकर 'किसी जीव का घात न हो' ऐसी भावना के साथ कारुण्य हुदय से गमन करना।
भाषा समिति - हित, मित और प्रिय वचन बोलना। सर्व प्रथम तो पौन से ही रहना चाहिए। अर्थात् परम सत्य
भाव की एकाग्रता में रहकर बोलने का विकल्प नहीं होने देना चाहिए। यदि बोलने के विकल्प को नहीं रोक सके तो ऐसे वचन बोलने चाहिए जो स्वपर का हित करने वाले हों, प्रिय हों, अमृत के समान मधुर हों और संक्षिप्त हों।
मूलाचार आदि आचारग्रन्थों में कथित ४६ दोषों को टालकर शुद्ध परिमित भोजन करना एषणा समिति है। यद्यपि भोजन करना साधुओं का उत्सर्गमार्ग है, राजमार्ग नहीं है तथापि तपश्चरण के कारण-भूत शरीर को स्थिर रखने के लिए अनासक्ति पूर्वक आवश्यकतानुसार शुद्ध आहार करना एषणा समिति है।
कारुण्य भादों से जीवों की रक्षा करते हुए पुस्तक, कमण्डलु आदि वस्तु को रखते-उठाते समय सावधानी रखना, किसी जीव की विराधना न हो ऐसे भावों से जमीन देखकर कोमल वस्त्र या मयूर पिच्छिका से झाड़कर वस्तु को उठाना, रखना आदाननिक्षेपण समिति है। इस समिति का पालन करने के लिए चर्म चक्षु के साथ ज्ञान चक्षु की भी आवश्यकता है।
शारीरिक मल-मूत्र, कफ, नाक मैल, नख, केश आदि को निर्जन्तु शुद्ध भूमि पर धर्मचक्षु और ज्ञानचक्षु से देखकर क्षेपण करना व्युत्सर्ग समिति है।
सम्यक् प्रकार से मन, वचन, काय का निरोध करना गुप्ति है। समिति प्रवृत्ति रूप है और गुप्ति निवृत्ति रूप है।
स्वकीय मन को शुभाशुभ विकल्पों से रहित कर अपने (आत्म) स्वरूप में स्थिर करना वा मन को एकाग्र करके तत्त्वों का चिन्तन करन
वचन बोलने के विकल्प को छोड़कर स्व-स्वरूप में रमण करना बचन गुमि है।
कायिक हलन-चलन क्रियाओं को रोक कर शरीर को स्थिर करके आत्मा का ध्यान करना, आत्मगुणों का चिन्तन करना काय गुप्ति है।
इस प्रकार पाँच समिति, तीन गुप्ति और पंच महाव्रत रूप तेरह प्रकार के चारित्र का भावशुद्धि से पालन करना चारित्र आराधना है। सो ही कहा है