Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - ३६
मूत्रयादिपंचविंशतिमलपरिहारेण हेयस्य त्यागेनोपादेयस्योपादानेन जीवादितत्त्वश्रद्धानं विधीयते यत्र सा व्यवहारसम्यग्दर्शनाराधना सा च क्षपकेणाप्रमत्तेनाराधनीया भवतीति तात्पर्यं।
आठ मद, शंका आदि आठ दोष, तीन मूढ़ता और छह अनायतन, ये सम्यग्दर्शन के २५ दोष हैं।
१. क्षायोपशर्मिक क्षणध्वंसी ज्ञान को प्राप्त कर मदोन्मत्त हो जाना, अपने स्वरूप को भूल जाना ज्ञान मद है। २. सांसारिक सम्मान प्राप्त कर मान के पर्वत पर चढ़ जाना, निज निधि को भूलकर बाह्य में रमण करना पूजा मद है। ३. स्वकीय पैतृक पक्ष को उत्तम मानकर दूसरों की अवज्ञा करना, अपने को उत्तम मानना कुल मद है। ४. मातृक पक्ष में मामा आदि को मंत्री पद आदि में स्थापित देखकर मेरे मामा राजा हैं, मंत्री हैं' आदि प्रकार से घमण्ड करना; ये सब क्षणिक हैं, विनाशशील हैं, इस विचार से शून्य हो जाना जातिमद है। ५. विनाशीक शारीरिक शक्ति को प्राप्त कर उस शक्ति का अभिमान करना बलमद है ! ६. धन, सम्पदा आदि सांसारिक वैभव प्राप्त कर 'मेरे समान धनवान, ऐश्वर्यशाली कोई नहीं है, ऐसा विचार कर वस्तु के स्वरूप को भूल जाना, ऐश्वर्य वा ऋद्धि मद है। ७, अनशन आदि बाह्य तपश्चरण करके अपने को महान् मानना, 'मेरे समान उपवास आदि करने वाला कोई नहीं है' ऐसा विचार करना तप मद है। ८. स्वकीय शारीरिक सौन्दर्य का घमण्ड करना शरीर मद है। ये आठों मद सम्यग्दर्शन के घातक
जिनेन्द्रकथित तत्त्व में शंका करना, सांसारिक भोगों की वाञ्छा करना, जिनधर्म में प्रीति नहीं करना, तत्त्व-अतत्त्व, देव-कुदेव, गुरु-कुगुरु आदि की पहिचान नहीं करना, किसी कारण से धर्म में दूषण लगाने वाले धर्मात्मा के दोषों का आच्छादन न करके उनके दोषों को बाह्य में प्रगट करना, किसी कारण से दर्शन और चारित्र से च्युत होते हुए को सम्बोधन करके स्थिर नहीं करना, धर्मात्माओं के प्रति वात्सल्य भाव नहीं होना और धर्म की प्रभावना नहीं करना ये शंकादि आठ दोष हैं।
गंगादि नदियों में स्नान करने को धर्म मानना वा लौकिक जनों की देखा-देखी करना लोक मूढ़ता है। रागी, द्वेषी देवों को आप्त मानकर उनकी पूजा करना देव मूढ़ता है।
शंका - पद्मावती, धरणेन्द्र, यक्ष आदि रागी-द्वेषी हैं, उनकी पूजा करना देवमूढ़ता है कि नहीं?
उत्तर - पद्मावती, धरणेन्द्र आदि को साधर्मी समझकर वा धर्म के रक्षक समझकर उनका सत्कार करना देवमूढ़ता नहीं है। परन्तु उनको आप्त मानकर पूजना देवमूढ़ता है। क्योंकि उनको वस्तु के स्वरूप का भान है, परन्तु जिनको वस्तुस्वरूप का ज्ञान नहीं है, वे ही मूढ़ होते हैं।
पाँच पापों में लीन, घोर परिग्रही एवं आरम्भ करने वाले पाखण्डी जनों का सत्कार करना, उसको पाखण्ड मूढ़ता कहते हैं।
कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और उनके भक्त जनों का सत्कार करना छह अनायतन है। ये सारी क्रियाएँ सम्यग्दर्शन की घातक हैं। हे क्षपक ! सम्यग्दर्शन के इन २५ दोषों का त्यागकर आठ अंग सहित सम्यग्दर्शन को धारण कर। निर्मल सम्यग्दर्शन को धारण करना ही दर्शन आराधना है।