Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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अपराधनासार-२५
ज्ञानदर्शनचारित्रतपोभिर्जिनभाषितैः । ..
आराधनाचतुष्कस्य व्यवहारेण सारता ।। । . तैरेव परमब्रह्म ध्यानात्तन्मयतां गतै: आराधनाचतुष्कस्य निश्चयेन च सारता। किं तत् आराधनाचतुष्कं । दसणणाणचरित्तं दर्शनज्ञानचारित्रं न केवलं दर्शनज्ञानचारित्रं । तपश्च। किंविशिष्ट । जिणभासियं जिनभाषित जिनेन वीतरागेन सर्वज्ञेन भाषितं प्रतिपादितं जिनभाषितं अत एव नूनं निश्चितं । यदेव हि जिनोक्तं तदेव नूनं जितरागादिद्वेषत्वात् । यदुक्तं
रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतं।
यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकरणं नास्ति ।। ततो जिनभाषितान्येव दर्शनज्ञानचारित्रतपास्युपादेयानि सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रं सम्यक् तपश्चेत्यस्य चतुष्कस्य यदाराधना उपासना विधीयते तदाराधनाचतुष्कं । अत्र प्रवृत्तिर्व्यवहाराराधना सारो भवतीति रहस्यमिति योजनिकाद्वारः। आराधनाचतुष्कस्य व्यवहारेण सारो भणित: नूनं जिनभाषित दर्शनज्ञानचारित्रं तपश्चेति चतुष्कं भवतीति विशेष इति संक्षपान्वयद्वारः॥ इति व्यवहाराराधनासारलक्षणप्रतिपादनेन तृतीय गाथासूत्रं गतं ॥३॥
- अथ व्यवहाराराधनासारसामान्यलक्षणं प्रतिपाद्य तस्य प्रथमभेदस्य सम्यग्दर्शनाराधमाया लक्षणं प्रतिपादयति
“व्यवहार नय से जिनेन्द्र द्वारा कथित सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप ये आराधना चतुष्क का सार है।"
निश्चय नय से उन्हीं चार आराधनाओं द्वारा परम ब्रह्म के ध्यान से तन्मयता को प्राप्त होना चार आराधना का सार है। यह निश्चय-व्यवहार आराधना जिनेन्द्र द्वारा कथित है इसलिए निश्चित है, वास्तविक है- क्योंकि भगवान रागद्वेष रहित हैं अत: उनका कथन सत्य है, सो ही कहा है
'रागद्वेष, मोह के कारण ही प्राणी अनृत वचन बोलते हैं। जिसके राग, द्वेष और मोह रूप दोष नहीं हैं उनके अनृत वचन नहीं होते हैं।"
जिनेन्द्र द्वारा कथित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र और सम्यक्तप ही उपादेय हैं अर्थात् ये चार ही आराधना करने योग्य हैं, उपासना करने योग्य हैं। यही चार-आराधना कही जाती है। इन चारों क्रियाओं में प्रवृत्ति करना व्यवहार से चार आराधना का सार कहा जाता है। इस प्रकार जिनेन्द्रकथित चार आराधना का सार संक्षेप से कहा है।
इस प्रकार व्यवहार आराधनासार का लक्षण प्रतिपादित करने वाली तीसरी गाथा समाप्त हुई ।।३।।
अब व्यवहार-आराधनासार के सामान्य लक्षण का प्रतिपादन करके चार आराधनाओं में जो प्रथम भेद सम्यग्दर्शन आराधना है उसका लक्षण कहते हैं