Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार-२३
नमस्कुरुते अयं तु स्वामी श्रीसुरसेनाचार्यः मुमुक्षुरन्यांश्च मुमुक्षून् मोक्षमार्गं नेता चतुर्विधाराधनासारफलप्राप्त सिद्धपरमात्मानं नमस्कृत्य ग्रंथारंभे प्रवर्तते । अनेन द्वारेण प्रोक्तार्थसमुदायः स्वावसरे स्वावसरे सर्वत्र ज्ञातव्यः। गाथा छंदः । गाथापादत्रयेण स्वेष्टदेवतानमस्कारप्रतिपादनेन चरमपादेनाराधनासारं वक्ष्येऽहमिति प्रतिज्ञाकरणे प्रथमगाथासूत्रं गतं ॥१॥ अथ निर्दिष्टाराधनासारस्य गाथापूर्वार्धन लक्षणमपरार्धेन तद्विभागं च दर्शयति
आराहणाइसारो तवदंसणणाणचरणसमवाओ। सो दुन्भेओ उत्तो ववहारो चेव परमट्ठो ॥२॥
आराधनादिसारस्तपोदर्शनज्ञानचरणसमवायः ।
स द्विभेद उक्तो व्यवहारश्चैव परमार्थः ॥२॥ भवतीति क्रियापदमध्याहृत्य व्याख्या विधीयते । भवति । कोप्सौ। आराहणाइसारो आराधनादिसार: आदिपदग्रहणस्य गाथाछदसः प्रथमपादस्य द्वादशमात्रापूरणार्थमेव प्रयोजनं नान्यत्। यथा दशादिरथः दशपूर्वकंधर: भीमादिसेन इत्यादिप्रयोगात् छंद:पूरणार्थं कवयः प्रयुंजते न दोषाय | आराधनेति पदमादौ यस्य सारस्य असौ आराधनासारः इति लक्ष्यनिर्देशः कृतः। किंलक्षणः। तवदसणणाणचरणसमवाओ
भावार्थ इस प्रकार है : क्योंकि जो जिस का अर्थी (इच्छुक) है वह उस गुणविशिष्ट पुरुष को नमस्कार करता है। ये स्वामी सुरसेन आचार्य स्वयं मुमुक्षु (स्वात्मोपलब्धि सिद्धि प्राप्ति के इच्छुक) हैं और अन्य मुमुक्षुओं को मोक्षमार्ग के उपदेशक होने से मोक्षमार्ग के नेता हैं इसलिए चतुर्विध आराधना के फल को प्राप्त करने वाले उपर्युक्त गुणों से विशिष्ट सिद्ध परमात्मा को नमस्कार करके ग्रन्ध का प्रारम्भ किया है। इस प्रकार उपर्युक्त अर्थसमुदाय से शब्दार्थ, नयार्थ, आगमार्थ, मतार्थ और भावार्थ अपने-अपने अवसर पर सर्वत्र लगाना चाहिए।
यह छंद गाथा-आर्या छंद है। इस आर्या छन्द में प्रथम तीन पाद (चरण) से इष्टदेव को नमस्कार किया है और अन्तिम चतुर्थ चरण के द्वारा 'आराधनासार कहूंगा' यह प्रतिज्ञा की है।॥१॥
अब गाथा के पूर्वार्ध से निर्दिष्ट आराधनासार का लक्षण और उत्तरार्ध से उस आराधना के विभाग (भेद) का कथन करते हैं
तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप समवाय आराधनासार है। यह आराधनासार निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है ॥२॥
'भवति' होता है, इस क्रियापद का अध्याहार करके आराधनासार की व्याख्या की जाती है
इस गाथा में जो 'आदि' पद है, वह गाथा-छंद के प्रथम चरण की १२ मात्रा की पूर्ति के लिए ही है। इसका दूसरा कोई प्रयोजन नहीं है। जैसे भीमसेनादि में जो आदि शब्द है, वह भी छन्द की परिपूर्णतार्थ है, इसका कोई दूसरा प्रयोजन नहीं, क्योंकि छन्द की परिपूर्णता के लिए कवि लोग आदि शब्द का प्रयोग करते हैं, इसमें कोई दोष नहीं है। आराधना का सार आराधनासार कहलाता है। यह लक्ष्य निर्देश किया गया है।