Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार -२२
अतिशयेनाजवजवसागरं पारं ददातीति पारदः स्वपरोद्धरणशीलः पंचाचारविराजमान आचार्यसमुदायः सुपारदः सुरसस्तेन वंदितमभिनंदितमित्येकादशश्छायार्थः। "जले वीर्य विषे रागे तिक्तादौ देहधातुषु। द्रवे त्रिनेत्रवीर्ये च रसशब्दः प्रकीर्तितः" इत्यनेकार्थः ।
द्वादशे पक्षे ग्रंथकारे, श्रीसुरसेनाचार्यः। मि. मितमिति प्रतिद्धं । आगमार्थो हि प्रसिद्ध एव यत एवं गुणविशिष्टाः सिद्धा भवत्येव । मतार्थस्तु सकलमत्तनिराकरणशीलो विशेषणद्वारेण विजयते। यद्यपि परमतेषु मिथ्यादृष्टिसुरसमुदायनमस्कृताः किंचिच्चमत्कारमात्रपराक्रमेण महावीराः अंजनगुटिकादिसिद्धाः प्रसिद्धा न ते विमलतरगुणसमृद्भमंडिता: ततो विमलतरगुणसमृद्धमिति विशेषणं स्वमतोपात्तसिद्धलक्षणविजयेन परमतोपात्तपराजयेन नि:शक प्रद्योतते। भावार्थश्चार्य, यो यद्गुणार्थी भवति स तद्गुणविशिष्टपुरुषविशेष
होते हैं और अन्य भव्य जीवों को रत्नत्रय रूपी नौका में बिठाकर पार करते हैं उन आचार्य, उपाध्याय और साधु गणों को सुरस कहते हैं। अथवा मोक्षमार्ग का अनुसरण करने वाली शिक्षा एवं दीक्षा के प्रदायक, स्व
और पर का उद्धार करने में तत्पर, पंचाचार (दर्शनाचार, ज्ञानाचार तपाचार, चारित्राचार और वीर्याचार) का पालन करने वाले आचार्य परमेष्ठी पारद (सुरस) कहलाते हैं। उन आचार्य परमेष्ठी के द्वारा वंदित, नमस्कृत, अनुभूत सिद्ध होते हैं। अर्थात् आचार्य परमेष्ठी अनन्य भावों से सिद्धों को नमस्कार करते हैं, वन्दना करते हैं, अर्चना करते हैं। उन सिद्धों का ध्यान के द्वारा अनुभव करते हैं। अतः सिद्ध सुपारद (सुरस) कहलाते हैं।
“जल, वीर्य, विष, राग, तिक्त रसादि, देह, धातु, द्रव, त्रिनेत्र, वीर्य इन अर्थों में रस शब्द का प्रयोग होता है।" ऐसा अनेकार्थ कोष में लिखा है।
इस गाथा में सुरसेन आचार्य ने अपना नाम भी सूचित किया है। इस प्रकार इस गाथा का रत्नकीर्ति देव ने १२ प्रकार से अर्थ किया है।
नयार्थ यथायोग्य समझना चाहिए। आगमार्थ तो प्रसिद्ध ही है, क्योंकि इस प्रकार के गुणविशिष्ट सिद्ध भगवान ही होते हैं, ऐसा आगम में लिखा है।
सकल मत का निराकरण करने में तत्पर मतार्थ तो इन विशेषणों के द्वारा प्रगट होता ही है, क्योंकि उपर्युक्त विशेषण वाले सिद्ध भगवान अन्य मत में नहीं हैं। यद्यपि मिथ्यादृष्टि हरिहरादिक भी देवगणों के वन्दनीय हैं किंचित् लौकिक चमत्कार दिखाकर महावीर नाम से प्रसिद्ध हैं, कोई अजनगुटिका आदि से भी सिद्ध है, परन्तु "विमलतर गुण से मंडित' यह विशेषण परमत का खण्डन करने वाला है क्योंकि अन्यमतों में विमलतर गुणों से मंडित सिद्ध नहीं है। अत: विमलतर गुणों से समृद्ध यह विशेषण निश्शंक रूप से स्वमत (जिनधर्म) कथित सिद्ध के लक्षण की विजय से परमत में कथित सिद्ध के लक्षण का खण्डन करता ही है।