Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार - २८
वचनात्कारणद्वयमद्भवति। जीवस्य अनादिकालकर्मपटलाष्टकमात्मानं मिथ्यात्वं क्वापि न परित्यजति । तद्विविधं अगृहीतगृहीतभेदात् । प्रथम तावत्सकलस्य जीवराशेर्भवति तदुदयेन तत्त्वातत्त्वश्रद्धानं किमपि न भवति। तत्र सम्यविपरीततत्त्वश्रद्धानयोईयोरप्यनवकाशत्वात्। द्वितीयं तु विशिष्टपंचेंद्रियजीवराशेर्भवति
जिस भाव के उदय से जीव को तत्त्वश्रद्धान नहीं होता है, विपरीत बुद्धि होती है, उसे मिथ्यात्व कहते हैं। सामान्यत: मिथ्यात्व एक प्रकार का है। गृहीत, गृहीत के भेद से दो प्रकार का है। एकान्त मिथ्यात्व, विपरीत मिथ्यात्व, विनय मिथ्यात्व, संशय मिथ्यात्व और अज्ञान मिथ्यात्व के भेद से मिथ्यात्व पाँच प्रकार का भी है।
द्रव्य नित्य ही है वा अनित्य ही है। इस प्रकार एकान्त रूप से वस्तु का निर्णय करना एकान्त मिथ्यात्व है। वस्तु के स्वरूप का विपरीत श्रद्धान करना विपरीत मिथ्यात्व है। देव-कुदेव, धर्म-अधर्म, गुरु-कुगुरु में भेद
समझकर सबकी समान विनय करना विनय मिथ्यात्व है। तत्त्वों का निर्णय नहीं करना, संशय रखना संशय मिथ्यात्व है। तत्त्वों को जानने का प्रयत्न ही नहीं करना अज्ञान मिथ्यात्व है। श्रद्धान और श्रद्धातव्य के भेद से मिथ्यात्व असंख्यात लोक प्रमाण भी है। परन्तु सर्व मिथ्यात्व के भेद गृहीत और अगृहीत इन दो मिथ्यात्वों में गर्भित हो जाते हैं। जो कुगुरु के उपदेश से अतत्त्व वा मिथ्यात्व में गर्भित हो जाते हैं, जो कुगुरु के उपदेश से अतत्त्व वा मिथ्याधर्म का श्रद्धान होता है, वह गृहीत मिथ्यात्व है। जो अनादिकालीन मिथ्यात्व के उदय से अतत्त्व श्रद्धान है, वह अगृहीत मिथ्यात्व है। गृहीत मिथ्यात्व पंचेन्द्रिय सैनी के ही होता है।
व्रतग्रहण वा संयमग्रहण के भाव नहीं होना अविरति है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के भेद से अविरति पाँच प्रकार की है अथवा- पाँच इन्द्रिय और मन को वश में नहीं रखना, छह काय के जीवों की विराधना करना रूप १२ प्रकार की भी अविरति होती है।
अच्छे (दान-पूजादि शुभ) कार्यों में प्रवृत्ति नहीं होना प्रमाद कहलाता है। उस प्रमाद के १५ भेद हैं। जिस कारण से यह जीव प्रमादी होता है, उसका मूल कारण कषाय का तीव्र उदय है क्योंकि कषाय ही आत्महितकारी कार्यों में प्रवृत्ति नहीं करने देती है। मूल कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से चार प्रकार की है और उत्तर भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं। इन कषायों के वशीभूत होकर जीव पाँच इन्द्रिय-विषयों में प्रवृत्ति करते हैं, यह पंचेन्द्रिय नामक प्रमाद है।
कषाय के कारण जो मन, वचन, काय की कुकथा में प्रवृत्ति होती है वह विकथा नामक प्रमाद है। उसके यद्यपि असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं परन्तु ये सारे भेद चार विकथाओं में गर्भित हो जाते हैं।
देश-देशान्तर में होने वाले मानव, पशु, कुआ-बावड़ी, उद्यान आदि की कथा तथा वहाँ के राज्यों की व्यवस्था आदि के कथन में लीन होना राष्ट्र कथा कहलाती है। देश की व्यवस्था करने वाले राजाओं की कथा करना अवनिपाल कथा है।
भोजन की कथा करना भोजन कथा है। स्त्रियों के हाव, भाव, विलास व अंगोपांग की कथा करना स्वी कथा है। निद्रा और स्नेह इस प्रकार प्रमाद के १५ भेद हैं। मन, वचन और काय ये तीन योग है। इस प्रकार इन कारणों से पौद्गलिक कर्म आते हैं, अतः यह भाव आम्रव है। ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के योग्य जो पुल वर्गणाएँ आती हैं वह द्रव्यास्रव कहलाता है। द्रव्यासव भी ज्ञानावरणादि के भेद से आठ प्रकार का है। मतिज्ञानावरण आदि उत्तर प्रकृतियों के भेद से द्रव्यास्रव १४८ प्रकार का है। तथा सूक्ष्म भेद की अपेक्षा द्रव्यासव असंख्यात लोक प्रमाण है।