Book Title: Aradhanasar
Author(s): Devsen Acharya, Ratnakirtidev, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
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आराधनासार -३१
आत्मनि कर्मण: स्वशक्ते: कारणवशादनुद्भूतिरुपशम: कतकादिद्रव्यसंबंधादसि पंकस्यानुभूतिवत्। आत्यंतिकी निवृत्तिः क्षयः तस्मिन्नेवांभसि शुचिभाजनांतरसक्राते पंकस्यात्यंताभाववत्। उभयात्मको मिश्र तस्मिन्नेवांभसि कतकादिद्रव्यसंबंधात् पंकस्य क्षीणाक्षीणवृत्तिवत् । उपशमः प्रयोजनमस्ये-त्यौपशमिक, क्षयः प्रयोजनमस्येति क्षायिक, क्षयोपशम: प्रयोजनमस्येति क्षायोपशमिकं । मोहनीयकर्मणः अनंतानुबंधिचतुष्टयं मिथ्यात्वत्रयं चेति सप्तानां प्रकृतीनामुपशमादौपशमिक सम्यक्त्वं भवति। तत्कथं भवतीति चेत् । अनादिमिथ्यादृष्टेभव्यस्य कर्मोदयापादितकालुष्ये सति। कुतस्तदुपशमः | काललब्ध्यादिनिमित्तवान् । तत्र काललब्धिस्तावत् कर्माविष्ट आत्मा-भन्यः काले अर्धपुद्गलपरिवर्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवति नाधिके इति । इयमेका काललब्धिः। अपरा काललब्धिः कर्मस्थितिका उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु प्रथम सम्यक्त्वलाभो न भवति । क्व तर्हि भवति। अंत:कोटाकोटीसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बंधमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात् सत्कर्मसु च ततः संख्येयसागरोपमसहस्रोनायामंत: कोटीकोटीसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति ।
आत्मा में अंतरंग-बहिरंग कारणों से कर्मों के शक्ति की उत्पत्ति नहीं होना, उसको उपशम कहते हैं। जैसे कतकफलादि द्रव्य के सम्बन्ध से पानी का कीचड़ नीचे बैठ जाता है।
कर्मों की आत्यंतिकी निवृत्ति क्षय कहलाती है। जैसे निर्मल पानी को स्फटिक मणि के भाजन में रखने से पानी अत्यन्त स्वच्छ हो जाता है।
उभय आत्मक मिश्र कहलाता है। जैसे जल में कुछ कीचड़ नीचे बैठ जाता है और कुछ ऊपर रहता है, मिश्रित होता है।
उपशम जिसका भाव है वह औपशमिक कहलाता है। क्षय जिसका भाव है वह क्षायिक कहलाता है और क्षय और उपशम जिसका भाव है वह क्षायोपशमिक कहलाता है।
अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ, चारित्र मोहनीय कर्म की इन चार प्रकृतियों और मिथ्यात्व, सम्यक्त्व मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति रूप दर्शनमोहनीय की इन तीन इस प्रकार कुल सात प्रकृतियों का उपशमन होने से तत्त्वों का जो दृढ़ श्रद्धान उत्पन्न होता है, वह औपशमिक सम्यग्दर्शन कहलाता है।
इन्हीं सात प्रकृतियों का अत्यंत क्षय हो जाने से इन सातों की सत्ता-व्युच्छित्ति हो जाने से जो तत्त्वश्रद्धान होता है, वह क्षायिक सम्यग्दर्शन है। अनन्तानुबन्धी चार, मिथ्यात्व और सम्यक्त्व मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के वर्तमान में उदय आने वाले निषेकों का उदयाभावी क्षय, भविष्यत्काल में उदय में आने वाले निषेर्को का सदवस्धारूप उपशम और एकदेशधाति सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होने से जो चल, मलिन और अवगाद भाव होता है, उसको क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं।
कर्मों के उदय से उत्पन्न कानुष्य भाव होने पर अनादि मिथ्यादृष्टि के उपशम सम्यग्दर्शन कैसे होता है? ऐसी शंका होने पर आचार्यदेव कहते हैं कि काललब्धि आदि का निमित्त पाकर यह जीव सर्व प्रथम औपशमिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है। सर्व प्रथम कर्मकालिमा से लिप्स भव्यात्मा अर्ध पुद्गल परिवर्तन नामक काल शेष रहनेपर प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करने योग्य होता है, अधिक काल रहने पर नहीं, यह प्रथम काल लब्धि है।